Wednesday, December 28, 2022

मच्छर की आत्मकथा

मच्छर की आत्मकथा

 उपवन में सुक्ष्म जीव विचरण कर रहे थे। उड़ने वाले जीव भी पंख फैलाकर इधर-उधर उड़ रहे तितलियों और मधुमक्खियों के साथ-साथ मक्खी-मच्छर भी भिन- भिन, भुन-भुन कर रहे थे। तितलियांँ अपने से छोटे जीवों से उनका परिचय पूछ रहीं थीं।जब मक्खी, मधुमक्खी ने अपना परिचय दे दिया तो मच्छर ने भी आत्मकथा सुनाना प्रारंभ किया।
  मैं मच्छर हूँ । निम्न कोटि की श्रेणी का एक नन्हा कीट। प्रकृति ने हमें दो पंख प्रदान किये ।जिससे उड़कर कहीं भी जा सकता हूंँ। गीत-संगीत हेतु ध्वनि भी प्रदान किया । जिससे भुन-भुन की आवाज कर गीत-संगीत से वातावरण गुंजायमान कर लोगों नींद उड़ाता हूंँ। भोजन मैं कभी नहीं करता।बस पेय पदार्थ ही मझको पसंद है। कभी-कभी पत्तियों का रस भी चूस कर काम चलाता हूंँ।लेकिन मुझे सबसे ज्यादा पसंद है जीवों के रक्त। अगर मानव- रक्त की प्राप्ति हो तो सोना में सुगंध ।रक्त -शोसन हेतु ईश्वर ने मुझे डंक भी दिया।चुपके से जीवों के शरीर में  उसे चुभोकर खून चूस  लेता हूँ ।पसंद का आहर पाकर जी लेता हूँ।लेकिन भगवान का भी अत्याचार कहो। सभी जीवो में श्रेष्ठ मानवों को बना दिया। बुद्धि-विवेक का सारा खजाना उन्हीं में भर दिया।नित नए -नए आविष्कार कर मुझसे अपनी  रक्षा करते हैं । कहीं उनके जागृत अवस्था में रक्त चूसने जाओ तो वे अपनी बड़ी- बड़ी हथेलियों के चाँटे से मेरी चटनी बनाकर देखेंगे कि मैंने उनका कितना खून चूसा ? कभी- कभी तो कुछ ऐसे चिपचिपे पदार्थ का लेपन कर लेंगे शरीर में, कि खून चूसने जाओ तो मुँह का जायका ही बिगड़ जाता है।या फिर अपने इर्द-गिर्द ऐसी अगरबत्तियाँ  जलाकर रकते हैं, जिसके धुएँं इतने जहरीले लगते है कि क्या कहूँ। बड़ी तेजी से वहाँ से भागना पड़ता है ।एक डिबिया में पता नहीं किस समंदर का पानी भरकर बिजली की स्वीच में लगा देते हैं जिससे न तो धुआं उठता है ना महक । लेकिन  उसके निकट जाने से दम घुटने लगता है ।वहांँ जाना मतलब जान गवाना।इससे तो अच्छा मच्छरदानी नामक ओहार था। जिसमें जब जी चाहे  उनके अंदर जाते समय चुपके से चले जाते थे। कहीं मच्छरदानी थोड़ा सा बिस्तर के दवाब से ऊपर हो जाता था तो  पौ बारह। अंदर जाकर जी भर खून चूसो। कहीं नींद में किसी के हाथ-पाँंव मच्छरदानी की जाली में सट गया तो बाहर से ही रक्त- पान का मजा ले लो ।कहीं उसमें छोटा -सा भी छिद्र हो गया तो समझो मदिरालय का प्रवेश द्वार खूल गया। लेकिन अब तो लगता है कि हमारा नामों- निशान मिटाकर ही रहेंगे मानव ।आज तो बड़ी-बड़ी गाड़ियों से गहरी और जानलेवा धुएंँ का गुब्बारा उड़ा कर नदी- नाला,कूड़ा -कचरा सभी जगह से हमारा नाश कर रहे हैं।
           सुजाता प्रिय समृद्धि
               

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