कहाँ गई तुम ओ गौरैया
एक जमाना बीता जब
मेरे कमरे के रोशनदान पर,
खर-पतवार के तिनके
दवा चोंच में लाती थी तू गौरैया।
एक-दूजे में उलझा-उलझाकर
थोड़ा उसमें फँसा-फँसाकर,
घोंसला अपना बनाती थी तू गौरैया।
रह-रहकर तुम्हारे नव-जनमें बच्चे,
मधुर कलरव जिसमें करते थे।
मेरे हृदय में मधुरस घोल
नव जीवन वे भरते थे।
चीं-चीं की कोमल संगीत,
सुनाई पड़ता था कानों में।
मन के तार झंकृत हो उठते थे,
उनके मधुर-मीठे गानों में।
उनके कोमल,लाल चोंच में,
तुम दानों के कण भरती थी।
निज शिशुओं की भूख मिटाकर,
अंतर की पीड़ा हरती थी।
चलचित्र-सा देखा करती थी,
पुलकित मन से मैं वह दृश्य।
माता की ममता की महिमा,
कैसी सुंदर उपहार सदृश्य।
आज न दिखती हो तुम गौरैया,
न श्रवण ही होता तुम सबका गाना।
रोशनदान घोंसले बिन सूना है ,
कौन छेड़ेगा वह प्रेम-तराना।
हाय कहाँ तू गई गौरैया,
बना बसेरा आसमान में।
नीले-नभ की सीमा पाने,
या पर फैलाने नील -वितान में।
सुजाता प्रिय
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