बैठी थी इक ठांव मैं अपने,
बिखरे पन्ने लेकर जीवन के।
लाख कोशिश कर भी मैं,
सुलझा न पाई उलझन मन की।
जीवन पथ की बाधाओं को,
कविताओं में बांध रही थी।
हकीकत में जो सध न पाया,
कहानियों में साध रही थी।
असफलताओं से टूटे मन को,
निराशाओं से हताश मन को।
सांत्वना दें रही थी अपने,
मुरझाए हुए निराश मन को।
वहीं पर छोटी बिटिया मेरी,
खिलौने लेकर खेल रही थी।
क्यारी में खिले गुलाब पर,
नजरें अपनी वह फेर रही थी।
लक्ष्य बनायी फूल तोड़ना,
वह हाथ बढ़ाती वह बारम्बार।
पकड़ी उसने फूल की डाली,
मुंह से निकल पड़ी चित्कार।
कोमल कर में चुभ गये कांटे,
नयनों में उसके भर गये पानी।
होंठ फुलाकर बिलख उठी वह,
लेकिन उसने हार न मानी।
हाथ बढ़ाई पुनः एक बार वह,
आये कुछ पत्ते हाथ में।
सफलता की किरण मिलीउसे,
कुछ आशा के साथ में।
एक बार फिर बढ़ चली,
पुनःउठकर वह फूलों की ओर।
अपने नन्हे कदम बढ़ाकर,
हाथ से डाली पकड़ मरोड़।
बढ़ा दूसरा हाथ झट अपने,
फूल को उसने तोड़ लिया।
असफलताओं को मार तमाचे,
जवाब उसे मुंहतोड़ दिया ।
इस तरह मुक भाषा में उसने,
यह संदेशा हमको दे डाला।
बाधाओं से हरदम लड़ना,
पड़े क्यों ना विष-प्याला।
असफलता अगर मिले कभी तो,
मन को न निराश करो।
सफलता संमुख होगी मेहनत से,
मन में यह विश्वास धरो।
सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
स्वरचित, मौलिक
बहुत-बहुत आभार सखी!
ReplyDeleteबाधाओं से हरदम लड़ना,
ReplyDeleteपड़े क्यों ना विष-प्याला।
सार्थक संदेश!--ब्रजेंद्रनाथ
आभार आए आदरणीय
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