Wednesday, May 31, 2023

पेड़ लगाओ पानी पाओ

पेड़ लगाओ पानी पाओ

  देख लो तुम
यह रेगिस्तान में,
   भरा है रेत।

     बन रहे हैं
देखो ऐसे ही अब
    हमारे खेत।

    दूर-सुदूर
दिख रहा है यहाँ
  एक ही पेड़।

    हम मानव 
ने बर्वाद है किया
   है इसे छेड़।

    अगर हम
एक-एक पेड़ भी
   यहाँ लागते।

   बसुंधरा के
आंचल में हैं हम
  पेड़ सजाते।


  स्वच्छ रहता
पर्यावरण यहाँ
  हम हँसते।

   सूखता नहीं 
नल कूप न पानी
   को तरसते 

सुजाता प्रिय समृद्धि

Tuesday, May 30, 2023

चित्रमेल (कहानी)

जय माँ शारदे

चित्रमेल
चूने- पत्थर से निर्मित स्तंभ में एक बड़ी और असंख्य छोटी-छोटी दरारें मुंँह फाड़े अपनी प्राचीनता का प्रमाण दे रहे थे।फिर भी इस पुराने स्तंभ की बूढ़ी हड्डी इतनी मजबूत है कि यदि इसे नवनिर्मित स्तंभ से मुकाबला के लिए मैदान में उतारा जाए तो हर पैतरे में जीतने के उपरांत अपनी सलामती कायम रखेगा।इस  पौराणिक विशाल और बलिष्ठ स्तंभ से पीठ टिकाकर एक रूपसी खड़ी है।उसके हाथ में थमें दीपक के लो में प्रदर्शित  हिंदी पल्लू के अर्ध घूंघट में, नुकीली नासिका के अग्र भाग में झूल रही झूलनी और नासिका के दोनों ओर चुंबकीय प्रभाव से आकर्षित,मछलियों का शक्ल लिए दो कजरारी आंँखों के सागर में तैर रहे लाल धागों से जाल तरुणी के नवोड़ा होने की सूचना दी रहे थे। पतली कलाईयों पर कैद कांँच की अनगिनत हरी चूड़ियों में खनक का आभाव नवोडे़ के विचारों के भंवर में गोते लगाने की चुगली कर रहे थे।
अनायास तरुणी की विचार- तल्लीनता भंग हुई। उसके गुलाबी अधर की पतली नाजुक पंखुड़ियांँ फड़फड़ाए और उल्लासित-सा मधुर मुस्कान मुख पर तीरते ही नन्हे दानों- सा धवल दंत पंक्तियांँ मुख के दरवाजे खोल बाहर झांँकने लगीं।
 फिर ?
फिर तो चूड़ियाँ  भी खनके लगी। ओठ बुदबुदाए और अस्फूट-सा कोई स्वर भी उभरा। तदोपरान्त तरुणी ने घूंघट को थोड़ा और आगे सरकाया और पंजों के बल उचकती हुई दीपक को उस बूढ़े स्तंभ के कंधे पर रख दी। फिर स्वयं में ही सिमट गई।
अब पदचाप उसके निपट सुनाई पड़े थे ।इस पदचाप को वह पहचानती थी फिर भी पुष्टि के लिए नजरें तिरछी करके देखी।
 खाना ....................
उसके मुंँह से बस एक ही शब्द निकला था कि आगंतुक ने धीरे से सर हिलाते हुए स्तंभ के निकट रखा लोटा उठाकर अपने सर से ऊपर किया और मुंँह खोलकर पानी उढ़ेलने लगा।गड़प !गड़प ! गड़प ! पानी गड़पने ही आवाज उसके कंठ से उभर कर घर की निरवता चीर गई। पानी पीकर जब उसने हाथ नीचे की, तरुणी ने झट हाथ बढ़ाकर लोटे को थाम लिया।
बाबूजी ?
मालूम नहीं पंचायत में हैं ? इस घूड़की के साथ वह चला गया।
अब वह सास-ननदों से भला कैसे पूछे भोजन के लिए ? वे तो दो टुक का जवाब देकर अपना आदर्श प्रस्तुत करेंगी कि मर्दों को खाये बगैर..................।
      अपने कलकतिया भाई की दी गई दीबार-घड़ी पर निगाह डाली।आज तो सचमुच दस बज गये।कल भोजन के प्रकारों को तैयार करने में आठ बजे थे तो सांस की नौ-नौ पसेरी की बातें सुनने को मिली थी।हाय....ई घर अब रहे वाला नाहीं।जे घर दस बजे घर के महतो के आगे थाली जाय उस घर में दरिद्रा का ही न बास होगा। पता नहीं कैसा दुष्ट घर से आई है।समूची वस्ती खा-पीकर सुख की नीँद ले रही है और इस महारानी को सतहरु छू गया।    
लेकिन आज! आज वह पूरी तरह चौकस थी। घड़ी की छोटी सूई छठे अंक को छू नहीं पायी थी और बड़ी ने दस को पार करने के लिए कदम बढ़ाया था तभी रसोई का समापन दाल बघारते हुए किया था।
सास ने छौंक में डाली गयी मिर्च को अधिक जलाकर नाक में सुरसुरी पैदा करने का आरोप लगाया और उसी समय से बिस्तर सम्हाल लिया।
दोनों ननदें दिन की बची रोटियाँ ताजी बनी तरकारी चखने के बहाने खाकर गीत गाने का पुर्वाभ्यास करती हुई सो गईं। चार दिन बाद टोले की गौरी का गौना जो होने बाला है।वह सोचने लगी गौने के मिठास के पीछे क्या गौरी को भी इन्हीं कड़वाहटों का सामना करना पड़ेगा ?
शरीर अकड़ा जा रहा था । सुबह जागी थी ठीक तरह से चार भी नहीं बजे थे। आराम के ख्याल से खाट पर बैठी और बैठते ही इस प्रकार से चिहुंक कर उठ खड़ी हुई मानो खाट पर रखी हुई कोई सूई चुभ गई हो।अभी दो दिन ही तो हुए हैं जब ओसारे की खाट पर लेटने के अपराध में सास-ननदों ने  काफी फटकार लगाई थी।पांजेब झंकारती हुई वह अपने कमरे में चली गई।
*  *  *  *  *  *  *  *  *  *  *
उठ रही कुलक्ष्णा ! क्या आराम फरमा रही है महारानी जी ! सास के कर्कश स्वर ने उसके कर्ण पटल पर डंका बजाया तो वह किसी कुशल पैतरेवाज की तरह उठ खड़ी हुई ।उनींदी आंँखों के पलक-पट फिहका कर एक सरसरी सी नजर सास के चेहरे पर डाली तो उनकी लाल-लाल आंँखों में क्रोध,घृणा,क्षोभ,कुण्ठा, तिरस्कार और जाने कैसे-कैसे मिले-जुले बुरे भाव नजर आए। वो s  वो s s वो, वह मारे डर के हकलाने लगी।अरी जाकर खाना तो परोस ।घर में मर्दुए आकर बैठे रहें और महारानी को सुख नींद आई है। दुष्टा कहीं की ! बाप के घर में नींद पूरी नहीं किया गया था।
    उसने अपने कांपते कदमों को घसीटा और कमरे से बाहर निकल आई।देखा,ससुर जी और पति परमेश्वर खाट पर बैठे हुए थे। उनके सामने से गुजरने का अपराध कैसे करती यह तो बड़ों के सम्मान पर चोट होती।एक पाए कि ओट लेकर खड़ी हो गई। काहे पांँव में लकवा मार गया है ? कमरे से निकलकर सास ने दहाड़ा तो कुछ सास की ओर लेती हुई और कुछ दिए के प्रकाश को अपनी ओट में छिपाती हुई रसोई घर में घुस गई।बड़ा अफसोस लग रहा था मायके की उन्मुक्तता और गौने से पहले बुनने वाले मीठे ताने-बाने को याद कर और मन के तरंगों पर तैरने वाले रंगीन सपनों को सोंचते हुए पता नहीं कब आँखे लग गई  ? झांँककर घड़ी देखी। बस पंद्रह मिनट ही सोई होगी । 
खाना परोसने में देर नहीं लगा। चौका -पानी तो पहले से ही करके रखी थी।अत्यंत धीमी आवाज में ननदों को पूछी थी, जिसका सीधा अर्थ था थाली उन लोगों के आगे पहुंचाना । अरे ला न मैं पहुंचा दूंँ थाली।वे क्या तेरे बाप के घर से आई हुई गुलाम हैं जो इतनी रात तक तुम रसोई करती रहो और वे तुम्हारी जी हजूरी करतीं रहें ? थाली पकड़ाती हुई सास के क्रोधित नेत्रों की जलन अपने चेहरे पर महसूस की। एक थाली तुरंत वापस आ गई। ससुर जी को आंँगन के उस पार जाते देखी। समझ गई सांध्य-आराधना बाकी है। पति के खाकर जाने के बाद आधा घंटा और इंतजार करना पड़ा ससुर जी के लिए।उनके खाने के 15 मिनट बाद एक देवर पहुंचा। चौका पर जाते ही उसके आगे थाली रख दी पर वह अपने मंझले भाई के इंतजार में बैठा रहा। वह घड़ी की सुई को पंद्रह मिनट फिर चलते  हुए देखती रही। सोलहवीं लकीर की ओर कदम बढ़ाते ही मंझला देवर आ गया।
अच्छा रुक !!! अब जल्द ही तुम्हारी लपटों को दबाती हूँ। मन-ही-मन अपने पेट की ज्वाला को दुत्कारती हुई दूसरे देवर के आगे थाली रखी और ननदों के कमरे की ओर दौड़ पड़ी। माई उठो ! खाना खाने के लिए ! मनुहार करती हुई बड़ी ननद को जगाई। उसने अलसाते हुए छोटी बहन को ठुहकारा।
 उठो माई वह छोटी को भी पुचकारी ।
खाने का मन नहीं ।पेट भरा है ।पेट पकड़ते हुए उसने करवट बदल ली।
हांँ इतनी रात को कौन खाए। मेरी भी इच्छा नहीं।जरा दिया बुझा दें। बड़ी ननद का आदेश मिला ।उजियारे में नींद नहीं आती।उसके पांँव जहांँ-के-तहांँ थम गए । शरीर सिहर उठा।इन दोनों के भोजन नहीं करने का अपराध भी तो उसी के मत्थे मढ़ा जाएगा। जाने कैसी-कैसी गालियांँ सुननी पड़ेगी ।
लेकिन ननद के आदेश उसे कदम बढ़ाने पर मजबूर कर रहे थे ।
दीये के लॉ तक अभी हथेली खींची ही थी कि सास की कर्कश बोलियांँ कानों में प्रविष्ट हुई।दिये को जलता छोड़कर दौड़ पड़ी। 
     और कुछ चाहिए दोनों थालियांँ भरी देख कर भी डर के मारे बरबस उसके मुंँह से निकल गया।
   कर्मजली ! सास ने दांँत पीसकर जैसे बेटों को बोलने की इजाजत दी।
 खाक चाहिए ! किसी आज्ञाकारी सुपुत्र की तरह मंझले देवर ने कहा ।
सूझता नहीं क्या ? दूसरे  देवर ने प्रश्न किया थाली भरी पड़ी है ।फिर भी चाहिए क्या, तुम्हारा कलेजा ?
 न s s न s s न s s s नहीं,

 एक भी कौर खाया जा रहा है उसकी हकलाहट को नजरअंदाज करते हुए एक देवर ने कहा -बर्फ मानिंद ठंडा लग रहा है। अभी-अभी राजू के घर खाना खाया क्या स्वाद था उसमें। मात्र प्याज रोटी ही थी पर कितना मजा आया ।
हांँ भाई उसकी भौजी एक- एक रोटी सेंक कर डाली हमारे आगे। कितना बढ़िया लगा ।पेट भर गया, मन नहीं भरा। वैसे भी रात में सूखा खाना ही अच्छा लगता है। पर हमारे घर भात बन जाता है। दाल- तरकारी सभी ठंडे हो गए हैं ।
हैं कैसे घराने की !जानते नहीं ? नीच घर में नीच का हीना जन्म होगा।
जरा सी नजर घुमाकर वह सासु माँ को देखी।जैसे पूछ रही हो कि रात में भात बनाने का नियम क्या उसी ने बनाया है।पर सास को अपनी कब दिखती है उन्हें तो बस बहू की ढूंढनी होती है। टोले भर मैं बस राजू की भौजी ही है जो मन से अपना फर्ज निभाती है। तब भी तो राजो के माय खीजत रहत है। जब मिलेगी, देर से खाना बनाती है, तेज चलती है, जहर जुबान है ।अरे हमको तो ऐसी पतोहू रहती तो पाँव धोकर पीती उसकी।
 वह अविश्वास भरे नेत्रों से सांस को निहार रही थी।
 मुंँह धोकर पिएगा इसका भला छोटे देवर ने घृणा पूर्ण स्वर में कहा। फिर एक-एक कर दोनों देवर उठकर चले गए।
 डरते-सहमते रसोई घर घुसी और हंडी की तली से गर्म भात निकालकर सासू मांँ के आगे रखती हुई बोली खाना खाइए मांँ जी!
 तू ही खा री कुतिए ! सास का नथुना जलते तेल के बैंगन के समान फूल रहा था।हमहूं तोहार ऐसन नीच पापिन थोड़े हैं जो घर में बेटा -"बेटी पेट पीटते सो रहे हैं और हम अपना पेट भर लें।तीन थालियां पड़ोसी हैं हंडिया में भी दो जनों का खाना पड़ा होगा भरले अपना पेट।बाप घर में कहांँ भाग्य लगा होगा इतना बढ़िया खाना ।अपना तो वैसे ही पेट भारी लग रहा है। पिछली पहर ही सत्तू खाई थी मंगरी के घर।
 एक मंगरी की पतोहू है ।अभी पाँच दिन आए हुआ है ।क्या आवभगत करती है ।बैठिए चाची! जाते ही चटाई बिछा दी। फिर खाने के लिए सत्तु दी,पानी दी। बड़भागिन को ही भली बहुरिया मिलती है। हमारा तो भाग्य ही फूटा है।अपने चाटे से सर पिटती हुई अपने कमरे की बढ़ गई।
          एक मंगरी चाची की बहू स्यानी है, तो एक मंगरी चाची भी तो भली हैं। वह सोचने लगी पाँच दिन की बहू को इतनी छूट दे रखी है।यहांँ बोलना बैठाना तो दूर किसी के दर्शन देने में भी मनाही है। एक बच्ची भी आई तो वालिस्त भर लंबा घूंघट खींचो।कोई बुजुर्ग आ जाएँ तो जहांँ की तहांँ अटकी रहो। चाहे रसोईघर में पक जाओ चाहे गुसलखाने में दम घुट जाए। कोई खबर लेने वाला भी नहीं ।
 उठ ऐ रमिया-झमिया !सास तेज आवाज में बेटियों को जगा रही थी। खाना खा ले जाकर थोड़ा। किसी के जवाब देने का अस्पष्ट शब्द सुनाई पड़ी । 
हांँ हांँ  खाने का मन किसका करेगा । यह भी कोई खाए के वेला है ।
खाए वही कलमुहीं । इतना देर इसलिए तो करती है सबका हिस्सा ठूसेगी।  
सास के कमरे से रोशनी लुप्त हो गई ! बेचारी इधर मूर्तियों  समान निर्जीबता लिए खड़ी थी ।
क्षणभर में आंँखों में नमी आई फिर किसी चश्मे की भांति भरती चली गई ।
और ? और फिर इतनी भर गई कि अपने बांध को पार कर अविरल धाराओं का रूप उसके आंँचल सागर में समाने लगे।इन खारे गर्म जल से सराबोर हो उसका आंँचल उसके पेट पर चिपक गया उसके आंँचल से ही आंँखे पोछी फिर परोसी थालियों को उठाकर रसोई घर ले गई और अन्य बर्तनों से ढक कर रखने लगी ।अपनी अंतड़ियों का होस जाता रहा। हाँ पके खाने की चिंता अवश्य आ घेरी।इतनी गर्मी में खाने खराब होने तथा बर्बाद होने का दोष मेरे ही ऊपर मढा जाएगा ।जब से इस घर में आई है हर बिगड़ी का आरोप उसी पर लगाया जाता है।
 रसोई घर के दरवाजे का सांकल चाढ़ाती हुई देखी एक गिलास बाहर ही छूट गया था। झुर्झुरी-सी दौड़ गई शरीर में ।एक भी सामान छूट गया तो सुबह सड़ी -बूसी गालियांँ तवज्जो की जाएंँगी उसके बाप को।
गिलास उठाती हुई एक नजर घड़ी पर डाली दोनों सुइयां मानो आलिंगन बद्ध हो बारहवें अंक का स्पर्श कर रही थी ।जी चाहा , गिलास दे मारे उस पर। अच्छे बुरे किसी भी वक्त चलना भूलती ही नहीं । रसोईघर का सांकल धीरे से खोली नहीं तो जागी हुई सासु मांँ की नींद टूट जाएगी ।फिर गिलास रसोई घर में रखकर अपने कमरे में पहुंँची। खर्राटे का तेज स्वर गूंज रहा था।कहीं नींद न टूट जाए। बड़े धीमें से पाइताने में लेट कर सोने का झूठा उपक्रम करने लगी।आंखों में नींद कहांँ ? अभी उसके मानस-पटल पर दो चित्र उभर रहे थे ।एक गौने के पहले आने वाले स्वप्नों-कल्पनाओं में उभरने वाले चित्र और दूसरा गौने के बाद का चित्र जो आजकल ससुराल में साकार रूप में उभर रहा था।वह दोनों चित्रों को मिला कर देख रही थी दोनों चित्रों का कोई भी आकार रंग रूप बनावट कुछ भी तो मेल नहीं खाता है। लेकिन इन चित्रों को मिलाने का उसके पास समय कहांँ था  ? शीघ्र ही दोनों चित्र धूमिल पढ़े और फिर लुप्त हो गए ।फिर उस रिक्त पटल पर आने वाले कार्यक्रमों,कार्यकलापों और कार्य फलों की विवरणात्मक सूची तैयार होने लगी ।
    सुजाता प्रिय 'समृद्धि'

Monday, May 29, 2023

चूड़ियाँ

चूड़ियांँ ( गीत )
खनक रहीं चूड़ियाँ,पूछ रही बात रे।
कब होगी तेरी पिया से मुलाकात रे।
कब होगी..........
गोरी कलाई में झंकारती हैं चूड़ियांँ।
झनक-झनक ये पुकारती हैं चूड़ियांँ।
तेरे बिना बालमा कटती ना रात रे।
कब होगी ..........
तुझ बिन लगती है बैरी ये चूड़ियांँ ।
गा कर चिढ़ाती हैं गैरी ये चूड़ियांँ।
समझती न मेरे दिल की हालात रे।।
कब होगी.............
पिया परदेशिया दरद नहीं जाने।
मन की तड़प की बात नहीं माने।
आजा बलमुआ तू लेके सौगात रे।
कब होगी...............
सुजाता प्रिय समृद्धि 

Sunday, May 28, 2023

कल्पना (कहानी )

कल्पना 
तीन भाइयों में रामू सबसे बड़ा था। माता- पिता के नहीं रहने के कारण अपने दोनों भाई भोलू और छोटू को बेहद प्यार करता था।यूं तो तीनों भाई आपस में मिलजुल कर ही रहते थे और यथायोग अपने कर्तव्यों का पालन भी करते थे। पर भोलू अपने बड़े भाई रामू की मालिकपना और आदेश के कारण चिढा रहता ।एक बार वह अपने साथी के साथ बगीचे में बैठा था।बातों -बातों में वह रामू की शिकायत करता हुआ बोला- जी चाहता है उसे खूब पीटूँ। जब देखो कुछ ना कुछ कहता रहता है। जहांँ देखो अपना अधिकार जमाए फिरता है।कुछ करना चाहो तुरंत रोड़े अटकाने लगता है। ऐसा नहीं करो,वैसा नहीं करो, अभी नहीं करो। संयोग से रामू भी उधर ही आ निकला और गोलू द्वारा बोली गई सारी बातें सुन लिया।लेकिन, उसने उससे कुछ कहा नहीं और चुप वहांँ से चला गया।लेकिन भोलू का तो घबराहट के मारे बुरा हाल था। सोच रहा था मेरी बातें सुनकर भैया ना जाने कितने नाराज हो रहे होंगे।कितना डाँटेंगे वे मुझे ।
मगर तब उसे बड़ा आश्चर्य हुआ जब घर में रामू से उसकी मुलाकात हुई और तब भी उसने उससे कुछ नहीं कहा।बल्कि सामान्य व्यवहार ही करता रहा। लज्जित-सा वह रामू के पास पहुंँचा और साहस संचित कर नम्र स्वर में बोला -मैंने तुम्हें बुरा भला कह कर अच्छा नहीं किया भैया! 
     तुम जो चाहे कह सकते हो, मैंने तुम्हें कब मना किया ? रामू ने बड़े प्यार से कहा ।
भैया तुम कितने महान हो ।अपनी शिकायत और अपमान सुनकर भी तुमने मुझसे कुछ नहीं कहा। मुझे कुछ सजा मिलनी चाहिए।
    मैं भला तुम्हें कुछ क्यों कहूंँ ? दोष तुम्हारा नहीं, तुम्हारी सोचों का है और यह छोटी-मोटी बातें सजा की नहीं होती। आवश्यकता इसे समझने की होती है ।जाओ ! तुम किसी एकांत स्थान में बैठकर यह कल्पना करो कि जैसी बातें तुमने मेरे लिए कही है,ठीक वैसी ही बातें छोटू भी तुम्हारे लिए कह रहा है । उसके बाद तुम सोचो कि तुम्हें कैसा लग रहा है।इतना कहकर रामु वहांँ से चला गया। रामू के चले जाने से भोलू वैसे ही अकेला हो गया और ना चाहते हुए भी कल्पना लोक में डूब गया। कल्पनाओं में ही छोटू उससे कह रहा था -जी चाहता है तुम्हें खूब पीटूँ। आवेश में आकर वह बड़बड़ाने लगा -क्या छोटा होकर तू मुझे पीटेगा ? हांँ-हांँ क्यों नहीं ? कल्पना लोक से ही छोटू ने उससे कहा -मैं कुछ भी करना चाहता हूंँ तुम उसमें अपनी टांँग अड़ाने लगते हो । हमेशा आदेश देते हो रहते हो +यह करो,वह करो। जहांँ कहीं भी जाना चाहता हूंँ रोक-टोक करने लगते हो। 
लेकिन मैं जो कुछ भी आदेश देता हूंँ। तुमसे बड़े होने के नाते ।कभी कम करने से रोकता हूंँ।तुम्हारी भलाई के लिए।अपना बड़प्पन और अपनी भलाई तुम अपने ही पास रखो।नहीं तो तुम्हारी खैर नहीं।क्या मैं अपना निर्णय स्वयं नहीं ले सकता ? भोलू के दिल को छोटू द्वारा बोली गई इन अपमानजनक शब्दों से बड़ा आघात पहुंचा ।वह तड़प उठा। फिर मन में सोचने लगा। जब मेरा मन इन अपमान भरे शब्दों की कल्पना मात्र से इतना विचलित हो उठा, तो भैया को प्रत्यक्ष रूप में उन्हीं बातों को सुनकर कितना ठेस पहुंंचा होगा।
उसने अपने बड़े भाई से जाकर क्षमा मांगी और मन ही मन यह संकल्प किया कि अब कभी भी, कल्पना में भी भैया के लिए कोई अपमानजनक बातें नहीं सोचूँगा बोलना और करना तो सदा ही दूर रहे ।
सुजाता प्रिय 'समृद्धि'

Wednesday, May 24, 2023

व्यवहार (मुक्तक)

व्यवहार (मुक्तक)

सब कर्म से ऊपर है,मानव का व्यवहार।
जिसे मर्म यह है पता,करता है उपकार।
सभी जनों से बोलता,है वह मीठी बोल-
सुव्यवहार से सबका,करता है सत्कार।

जग में जितने भी हुए, व्यवहार कुशल लोग।
उनके संगी जो रहे,मीत बने संयोग।
सबके मन का दुःख हरे,मन को करते शांत-
चित उनका निर्मल रहा, दूर रहा सब रोग।
               सुजाता प्रिय 'समृद्धि'

Tuesday, May 23, 2023

पर्दाफाश (लघुकथा)

पर्दाफाश (लघु कथा)

मनमोहन जी ने आज पूरी तरह से ठान लिया था कि चाहे जो हो आज सोनाली भाभी का पोल खोल कर रहूंँगा।सीधे-साधे शपथ भैया के विश्वास को वह किस प्रकार चकनाचूर कर रही हैं, यह जरा उन्हें भी पता चले। यूंँ तो लोगों के बीच स्वयं को सती-सावित्री के तेवर दिखाती हैं ।लेकिन शपथ भैया के घर से जाते ही घर के फाटक पर खड़े होकर जाने किसका इंतजार करती हैं और हाथ हिला -डूलाकर उसे विदा करती हैं।सब फाटक की जाली से दिखता है।भले ही मैं उनके घर किराए पर रहता हूंँ । लेकिन हूँ तो उन्हीं के घर का हिस्सा। बाद में कुछ ऊंच-नीच होने से अच्छा है उन्हें पहले ही सतर्क कर दूँ।
शपथ भैया के दफ्तर के लिए निकलने से पूर्व ही वे निकलकर गली के एक विद्युत-खम्भे के पीछे छुपकर खड़े हो गए। नित्य नियम की भाँति आज भी शपथ भैया के घर से निकलते ही सोनाली भाभी गालों में लगाए पाउडर को हथेलियों से मिलाती हुई बाहर आ गई और प्रफुल्लित मन से धीरे-धीरे कोई गीत गुनगुनाती जा रही थी,जो स्पष्ट सुनाई नहीं पड़ रहा था । मोड़ पर खड़े शपथ भैया के पास आकर एक टैक्सी रुकी जिसमें सवार होते हुए उन्होंने हाथ हिलाया तो सोनाली भाभी भी हाथ डुलाकर गीत गुनगुनाती हुई घर के अंदर चली गईं।थोड़ी देर इंतजार के बाद भी जब वह दुबारा नहीं निकली तो मन ही मन सोचने लगे यह तो पता नहीं चल पाया कि वह रोज किसको हाथ डुलाकर विदा करती हैं।आज लगता है बाहर निकलते ही शपथ भैया खड़े मिल गए इसलिए उनकी बात नहीं बनी ।फिर भी यह बात मैं उन्हें बता कर रहूंँगा। अपने मन में कुलबुलाते शक के कीड़ों को सांत्वना देते हुए वे घर पहुंँच गए।पत्नी मायके में थी इसलिए स्वयं का बनाया हुआ भोजन कर अपने दफ्तर के लिए निकल गए ।शाम में घर आते ही देखा सपथ भैया घर के बाहर बैठे चाय पी रहे हैं।अंतिम चुस्की लेते ही उन्होंने जैसे ही प्याला रखा। उन्होंने सोचा यह अच्छा मौका है सोनाली भाभी के करतूतों को उजागर करने का।- "क्या बात है भैया ! आज तो भाभी आप को बड़े प्यार से गीत गाते हुए हाथ डुलाकर दफ्तर के लिए विदा कर रही थीं।"उन्होंने  यह बात बताने की गर्ज से बिना भूमिका बांधें ही बात की शुरुआत की। 
"कब?" शपथ भैया ने ना समझते हुए पूछा। 
"जब आप दफ्तर जा रहे थे।"    "अरे- रे!उसका तो यह नित्य का नियम है।रोज मेरे निकलने से पहले स्नान कर लेती है।जब-तक मैं सड़क पर जाता हूंँ, सिंदूर- पाउडर लगाकर मेरे पीछे आती है। साथ में हनुमान चालीसा इत्यादि का पाठ भी कर लेती है। फिर जैसे ही मेरे साथियों के साथ ले जाने वाली टैक्सी आती है,मैं चला जाता हूंँ और यह पूजा पाठ कर लेती हैं।"
मन मोहन जी की बोलती बंद हो गई थी।आज उनके मन का भ्रम टूट चुका था।सोनाली भाभी नास्ते की तश्तरी और पानी भरा गिलास  बाहर निकलीं ।मनमोहन जी उनसे नजरें चुराते हुए अपने किराए के कमरे की ओर बढ़ चले।
             सुजाता प्रिय 'समृद्धि'

Monday, May 22, 2023

पर्यावरण ( सरसी छंद)



पर्यावरण (सरसी छंद)

आओ पर्यावरण रक्षा को, पकड़ हाथ से हाथ।
स्वच्छ पर्यावरण को कर लें, मिलकर हम सब साथ।

सब मिल जल-जमीन जंगल का, कर लें सुरक्षा आज।
पर्वत,उपल,सिंधु,झील,नदी, इन्हीं पर है नाज।

           सुजाता प्रिय 'समृद्धि'

        सुजाता प्रिय 'समृद्धि'

Friday, May 12, 2023

प्रेरणा दर्पण

प्रेरणा दर्पण

किसी गांँव में दो भाई रहते थे। बड़ा भाई काफी मेहनती और फुर्तीला था।लेकिन अपने छोटे भाई के निकम्मेपन और आलसी स्वभाव से हमेशा खिन्न रहता था। एक बार जब वह अपने छोटे भाई को खेतों के काम में हाथ नहीं  बटाने पर उसे डांँट रहा था, उस समय वहांँ से एक महात्मा जी जा रहे थे। महात्मा जी ने जब उसे अपने भाई पर गुस्सा करते देखा तो बड़े प्यार से उसे अपने पास बुला कर पूछा- "बेटा अपने छोटे भाई पर गुस्सा क्यों कर रहे हो?" बड़े भाई ने गुस्से से चिढ़ते हुए कहा -"महात्मा जी यह मेरा छोटा भाई है ।माँ कहती है यह मेरे शरीर के अंग जैसा है।तो इसे मेरे कामों में हाथ तो बटाना चाहिए।
लेकिन यह कोई काम नहीं करता है। इसलिए मुझे गुस्सा लगता है।" महात्मा जी ने मुस्कुराते हुए बड़े शांत स्वर में कहा-वत्स अभी-अभी तुमने ही कहा तुम्हारा छोटा भाई है और तुम्हारे शरीर के अंग जैसा है।परंतु क्या तुमने कभी अपने अंगों के क्रियकलापों के ऊपर गौर किया है ।तुम हाथ  बटाने की बात करते हो तो ।तुम अपने हाथों पर ही ध्यान देकर देखो। ईश्वर ने तुम्हें दो हाथ दिए हैं। पर क्या तुम्हारे दोनों हाथ एक समान काम करते हैं ? जितना काम तुम्हारा दाहिना हाथ करता है,उतना काम वाया हाथ कदापि नहीं कर पाता । परंतु अगर आवश्यकता पड़ने पर तुम अपने बायें हाथ को कामों में लगाते हो तो वह भी दाहिने हाथ का सहयोग करने लगता है।ठीक उसी प्रकार तुम्हारा छोटा भाई तुम्हारे काम में हाथ नहीं बटाता तो उससे सदा अपना बायां हाथ समझकर प्रेम पूर्वक काम करने के लिए प्रोत्साहित करो। 
बड़े भाई को महात्मा जी की बातों में गहरी सच्चाई की झलक लगी।उसने आदर पूर्वक हाथ जोड़ते हुए महात्मा जी से कहा- महात्मन आपने ठीक ही कहा -अब मैं कभी भ अपने भाई के काम नहीं करने पर क्रोध नहीं करूंगा ।बल्कि प्यार से उसे समझाऊंँगा। महात्मा जी खुश होकर मुस्कुराते हुए अपनी राह चल दिए।
           सुजाता प्रिय समृद्धि

Thursday, May 11, 2023

हाय रे रिवाज

हाय रे रिवाज 
भारतीय समाज के पौराणिक रिवाजों के अनुसार भारतीय स्त्रियां पति एवं अन्य बड़े पुरुषों के नाम नहीं लेतीं। इतना ही नहीं कुछ घरों का प्रचलन यह भी है कि देवर जी को या जेठानी के बच्चों को भी बबुआ जी, लाला जी और छोटे जी कहकर बुलाया जाता है ।इस परंपरा के अनुसार ही हमारी पड़ोसन ने प्रथम शिक्षिका के रूप में अपने चार वर्षीय बेटे को सब कुछ बोलने के लिए तो सिखाया पर अपने घर के पुरुषों के नाम नहीं बता सकीं। परिणामस्वरूप दुर्गा-पूजा के मेले में उनका बेटा उनकी अंगुली छोड़कर इधर-उधर भटक गया और दूर के किसी गांँव में चला गया संयोग से एक सज्जन भाई की नजर उस पर पड़ी। उनके लाख पूछे जाने पर भी वह बच्चा अपने अभिभावकों का नाम नहीं बता सका । वह तो उन सज्जन व्यक्ति की भलमनसाहत और होशियारी थी कि बच्चे द्वारा गांँव का नाम बताने पर वे उसे हमारे गांँव के मुखिया के पास पहुंँचा दिए ।फिर मुखियाजी गाँव वालों से पहचान करवा कर अपने सेवक द्वारा बच्चे को उसका घर पहुंचाया। इस प्रकार बच्चे के शोक -संतप्त परिवार को शांति मिली ।अन्यथा ................
              सुजाता प्रिय समृद्धि

Wednesday, May 10, 2023

मन-दर्पण (कहानी)

मन-दर्पण 
रमेश नाम का एक कलाकार था। उसे अपनी कला पर बहुत अभिमान था।संयोग से उसकी दोस्ती एक ऐसे कलाकार से हुई, जो कला के क्षेत्र में उससे बहुत आगे था।उसका नाम पुष्कर था। रमेश को उससे ईर्ष्या हो गई। बिचारा पुष्कर आर्थिक तंगियों से घिरा एक निपुण कलाकार होकर भी अपनी कला का प्रदर्शन नहीं कर पाता।उसकी मजबूरियों का लाभ उठाते हुए रमेश ने उससे अपने साथ काम पर रखने का प्रस्ताव रखा। मजबूर पुष्कर भी सहमत हो गया ।रमेश दिन भर उससे मेहनत करवाता। बदले में उसे कुछ रुपए थमा कर कलाकारी का यश स्वयं पाता। कुछ ही दिनों में उसका नाम चारों तरफ फ़ैल गया।फिर एक दिन ऐसा आया जब उसकी कला के लिए प्रदेश मंत्री ने उसे पुरस्कृत किया ।पुरस्कार पाकर वह बहुत खुश हुआ।लेकिन उसके मन के आइने में उसे पुष्कर की छवि नजर आती रही।उसकी अंतरात्मा चीख-चीखकर कह रही थी।इस पुरस्कार को प्राप्त करने का अधिकार तुम्हें नहीं है।बल्कि इसका अधिकारी तो तुम्हारा सहयोगी पुष्कर है। जिसकी कला को तुम चंद पैसे देकर खरीदते रहे।
     लोगों की प्रशंसात्मक निगाहें रमेश पर टिकी हुई थी।लेकिन यह निगाहें उसे अपने चेहरे पर चुभती-सी महसुस हो रही थी।जब वह पुष्कर के निकट पहुँचा तब पुष्कर ने उसे उन्मुक्त ह्रदय से बधाई दी । उसकी बधाई संवाद ने तो उसके अंतर्मन को पत्तों की भाँति झकझोर दिया ।चोरों की तरह नजरें चुराते हुए वह पुष्कर के बगल में जा बैठा । पुष्कर ! तेरे पास कुछ रुपए हैं ? डबडबाई आंँखों से निहारते हुए पुष्कर से पूछा।भोला पुष्कर जेबें टटोलता हुआ कुछ पैसे निकाल दिखाया। रमेश ने उसका हाथ पकड़कर खींचता हुआ मंत्रीजी के पास ले गया।और हाथ जोड़ते हुए विनय पूर्वक बोला - माननीय मंत्री महोदय ! मैं अपना पुरस्कार अपने इस प्यारे दोस्त को बेच रहा हूंँ। तुम पुरस्कार बेच रहे हो ? मंत्री महोदय ने आश्चर्य- मिश्रित स्वर में पूछा।
जी हांँ ।
लेकिन क्यों ? पुरस्कार भी कहीं बेचा जाता है ।यह तो मनुष्य की सुकृतियों का प्रमाण होता है ।
हांँ मंत्री महोदय रमेश ने सादर सर झुकाते हुए कहा -आपने ठीक ही कहा कि पुरस्कार मनुष्य की सुकृतियों का प्रमाण होता है। लेकिन सुकृति करने वाले के लिए होना चाहिए ना कि सुकृतियांँ खरीदने वालों के लिए।
 मंत्री जी के साथ-साथ उपस्थित सभी माननीय लोग उसे हैरानी से देखा रहे थे।
मैं कुछ समझा नहीं तुम किस सुकृतियाँ खरीदने वाले की बात कर रहे हो और क्यों इसे अपना पुरस्कार बेचना चाहते हो ?
सभी जनों के कोतूहल को मंत्री महोदय ने ही उसके समक्ष रखा।
  मंत्री जी रमेश ने पश्चाताप भरे स्वर में कहा - जिन कलाओं के लिए आपने मुझे यह पुरस्कार प्रदान किया है वे उत्कृष्ट कलाकृति मेरी नंही हैं। बल्कि मेरे इस बजबूर दोस्त की है जिसकी मजबूरियों का फायदा उठाकर मैं इसकी गुणवत्ता का दमन करता रहा और जल से चंद रुपयों के बदले इसकी कला को खरीद कर नाम कमाता रहा। एक कलाकार और दोस्त होने के नाते यदि मैं चाहता तो इसे सहयोग और प्रोत्साहन देता और स्वयं भी इससे शिक्षा ग्रहण करता।आज मेरी आत्मा मुझे धिक्कार रही है कि मैंने कपट से अपने दोस्त के ईश्वर प्रदत्त गुणों का लाभ उठाया। इसलिए मैं चाहता हूंँ कि जिस प्रकार इससे इसकी कला खरीदते रहा,उसी प्रकार उसके बदले यह पुरस्कार इसे बेच दूं ।और उसने झट पुष्कर के हाथ से पैसे लिए और पुरस्कार उस के हाथों में सौंप दी ।मंत्री महोदय ने देश के सपूत को गले से लगा लिया। कम-से-कम इसे अपनी गलतियों का एहसास तो हुआ और अपने मन से उसे दूर तो कर दिया ।वहाँ उपस्थित सभी लोगों की नजरें अब पहले से अधिक प्रसंशात्मक दृष्टि से उसे निहारी रही थी।
              सुजाता प्रिय समृद्धि

Monday, May 8, 2023

आँसू (कहानी)

आँसू

स्वभाव से हंँसमुख और सदा मुस्कुराती रहने वाली छोटी आंटी के आंखों में आंसुओं की मोटी- मोटी बूंदें टपकते देखकर आलोचना हतप्रभ रह गई। आंटीजी ! कुछ पल उन्हें यूं ही निहारने के पश्चात उसने भींगे स्वर में उन्हें पुकारा ।लेकिन, आंटीजी की ओर से कोई जवाब नहीं मिला। फिर भी आलोचना ने आंटीजी से पूछ कर यह जानने की कोशिश की कि वे रो क्यों रही है ? पर उनकी जुबान नहीं खुली। बस उनकी आंँखें आँसुओं की बुंदे टपकाती रहीं। शायद आंटी जी बताना नहीं चाहती थीं अपने घर की बात।इसलिए आलोचना ने भी आदर्शात्मक तरीका अपनाया। जब वे बताना नहीं चाहती तो मुझे ही क्या पड़ी है किसी के निजी मामले में दखल देने की ? दादी और बुआ कहांँ है उसने विषय बदलते हुए पूछा ।आशा के विपरीत आंटी जी ने हाथ के इशारे से बताया कि वही आंगन में हैं।शायद आंटी जी चाह रही थी कि वह वहांँ से चली जाए। आलोचना ने भी यही उचित समझा वह आंँगन की ओर चल दी ।उसने देखा वहांँ बैठे सभी के चेहरे पर तनाव व्याप्त है।
 क्या है आलोचना ? बड़ी आंटी ने देखते ही उससे पूछा ।
मैं मैं मुन्नी से खेलने आई हूं माहौल देखकर उसने झूठ का सहारा लिया ।अब क्या बताती की छोटी आंटी से बात करने आई थी ।परंतु ,छोटी आंटी तो स्वयं।
    मुन्ना तो तुम्हारे घर में ही है - मीरा बुआ ने कहा ।म -म म् मेरे घर में? उसने जेब उसकी झेंप हकलाहट में बदल गई ।सच ! वह अभी तो अपने घर में मुन्ना के साथ खेल रही थी।
हांँ थोड़ी देर पहले ही तो अप्पू उसे ले गया है ।
ओह उसने अनभिज्ञता दिखाते हुए उल्टे पांँव वहांँ से चल दी। बाहर कमरे में छोटी आंटी की आंँखों से उसी प्रकार आंँसू बरस रही थी ।उसने उनसे कुछ नहीं पूछा और अपने घर चली आई।
   छोटी आंटी के यह मुक आंँसू ने ना जाने कितनी जुबाने ले ली। कहीं आरोप-प्रत्यारोप का आदान-प्रदान हुआ तो किसी को अपने मन की बातें करने का मौका मिल गया।
आलोचना ने घर पहुंचकर कहा छोटी आंटी रो रही है।उसकी मांँ ने कहा -डांँट -फटकार पड़ा होगा। 
क्यों पड़ेगा डांँट-फटकार बिचारी को ? वह कोई गलती कर ही नहीं सकती।दादी-अम्मा ने चिढ़ते हुए कहा ।क्योंकि उनकी नजरों में छोटी आंटी ही एक ऐसी बहू थी जिनमें किसी प्रकार की बुराई नहीं थी।
अरे !वह अपने आप को बहुत होशियार समझती है ।ज्यादा होशियारी दिख लाएगी तो डांँट पड़ेगा ही। छोटी बुआ ने उनकी काबिलियत से जलते हुए कहा।
    असल में वह थोड़ी सुस्त है ही। घर के कामों में देरी करेगी तो बात सुनेगी ही ।आखिर छोटों को ही ना आदमी कुछ बोल सकता है। आलोचना की मांँ ने अपना बड़प्पन दिखाते हुए कहा।
      हां! ससुराल में छोटा होना तो सबसे बड़ा गुनाह है। छोटी होने के नाते विचारी घर के सारे कामकाज भी संभालती है, कामों में व्यस्त रहने के कारण भूखी- प्यासी भी रहती है ।अपने बच्चों तक की देखभाल नहीं कर पाती और देर-सवेर होने पर डाँट भी सुनती है। कभी-कभार कोई मदद भी तो नहीं कर देता ।छोटी मम्मी ने इसी बहाने अपना कष्ट सुनाया।
   काम क्या करती है ?आलोचना की मांँ चिल्लाती हुई बोली। सिर्फ खाना बनाती है बाकी सारा काम- काज तो दाई ही करती है।
     खाना बनाने के अलावा भी तो कई काम होते हैं घर में।क्या दिन- रात सबकी जी हजूरी दाई ही करती है ?
    जी हजूरी क्या करती है ? आलोचना की मांँ तैस में आकर बोली- आजकल की बहुएँ तो परिवार को देखना ही पसंद नहीं करती । यह नहीं सोचती कि घर आखिर उन्हीं का है।वह तो साल-दो-साल से आई है ।पहले घर के लोगों ने सबको किया तब ना आज आराम चाहती है ।वह अपने पूर्व कर्मों का एहसास दिलाती हुई बोली।
    घर उनका है तो बहू का नहीं? छोटी मम्मी ने आदर पूर्वक प्रश्न किया ।यदि उनका घर है तो क्यों अपने घर के कामों से उबती हैं ?      
          ऊब कहांँ रही है बेचारी ? यदि उबती तो काम ही नहीं करती। हांँ करने के बाद भी कोई पीछे पड़ा रहता है तो बहुत गुस्सा लगता है। सभी गुट बनाकर एक ओर हो जाते हैं और बेचारी एक का नुक्ताचीनी करते रहते हैं। मालिकपना जतलाने के समय घर उनका हो जाता है और काम के समय नयी बहू का।शेष सभी लोग मेहमान हो जाते हैं।यह बात सच है कि पहले घर को उन्होंने ही संभाल रखा था ।पर आज थोड़ी सी मदद कर देने से क्यों कतराती हैं।वह छोटी है तो अवश्य उसे बड़ों के सम्मान में घर के सारे काम करना चाहिए।साथ ही बड़ों का भी फर्ज बनता है कि वह उसकी भावनाओं को समझें, उसका ख्याल रखें,नयी बहू के मन में भी चंद तरह के अरमान रहते हैं।उन्हें क्यों कुंठित किया जाता है?कभी मन-मिजाज खराब हो जाता है तो घर में कोहराम मच जाता है ।
    आलोचना की मांँ के पास आगे बहस करने के लिए कोई मुद्दा नहीं बचा था। वह धीरे से वहांँ से खिसक गई और बड़ी बुआ को देखते ही बुदबुदा उठीं -हम भी बहू थी क्या मजाल था कि मुंँह से एक शब्द भी निकले ।
    आजकल की बहू मुंँह बजाने में ही अपनी बहादुरी समझती हैं ।कमरे से निकलते हुए छोटी बुआ ने बूढ़ियों समान हाथ नचाते हुए कहा।
आलोचना की मांँ के हट जाने से माहौल शांत हो गया था। लेकिन आलोचना विचारों के भंवर में डूबने लगी । वह सोचने लगी छोटी मम्मी कितनी खूबसूरती से अपने दुखों को बयान कर दी । छोटी आंटी के साथ जाने क्या हुआ ?क्यों रो रही थी वह ? पर उनकी तरफ से अपनी स्थिति का बयान छोटी मम्मी ने कर दिया। उसे छोटी मम्मी की बातों में गहरी सच्चाई की झलक लगी ।वह सोचने लगी -मान लिया पहले दादी मांँ,मम्मी और बुआ ने इस घर का सारा काम संभाल रखा था। लेकिन छोटी मम्मी भी ठीक ही कह रही है कि आज भी थोड़ा बहुत मदद तो उन्हें करना चाहिए।जब मम्मी इस घर में आयी तो कम लोग थे। दादी भी चुस्त-दुरुस्त थी। सुना है पहली बहू के लाड़-प्यार में घर के सभी कामों में हाथ बंँटाती थी। दोनों बुआ भी छोटी थी इसलिए उनमें आज की तरह ननदों वाली अकड़ नहीं थी। मम्मी जो कहती थी दौड़ -दौड़ कर करती थीं।चाचू दुलारे और चटोर थे। चटकीले खाने और पैसे के लालच में खूब सबकी खूब चापलूसी करते थे।घर में पहला पोता-पोती आने पर हम दोनों भाई-बहनों के नखरे भी सभी खूब उठाते थे। इस प्रकार मम्मी पर काम का बोझ कम था। लेकिन आज परिवार बढ़ गया है। एक छोटी मम्मी स्वयं बढ़ीं। एक फूफाजी । तीन भाई -बहन मैं, तीन बड़ी बुआ के बच्चे और दो छोटी मम्मी के । परिवार बढ़ने से काम भी तो बढ़ता है ।एक आदमी कितना करेगा ।थोड़ा-थोड़ा सभी लोग हाथ बटाती तो एक पर भार नहीं होता ।यह भी सच है कि घर के सारे कामकाज छोटी मम्मी करती हैं ।लेकिन उन्हें अपने मन से कुछ बनाने का,कुछ खाने का अथवा किसी को कुछ देने का अधिकार नहीं है। इन सब बातों के लिए उन्हें मम्मी यह बुआ जी से इजाजत लेनी पड़ती है। छोटी मम्मी छोटे-बड़े सभी के हुकुम बजाती हैं ।सब के नखरे उठाती हैं ।पर,कभी वह हम बच्चों को भी कोई काम कह देती हैं तो उन्हें यह सुनने को मिलता है कि -आदेश क्या देती हैं ? कोई तुम्हारे मायके का गुलाम थोड़े ही है । यह भी सच है कि जब उनकी तबीयत खराब रहती है,तब भी उन्हें चैन से आराम नहीं करने दिया जाता। बदन तपते रहता है लेकिन सभी उसे काम नहीं करने का बहाना बताते हैं और यह भी सच है कि कभी वे छोटे पापा के साथ घूमने निकल जाती हैं तो घर में अच्छी खासी हाय तौबा मच जाती है । दादी, मम्मी,बुआ सभी यही कहती हैं कि हम जब नयी थीं तो चौखट के बाहर कदम नहीं रगती थीं। आखिर ऐसा व्यवहार क्यों किया जाता है ससुराल में बहूओं के साथ ? अपने समय की तुलना लोग आज क्यों करते हैं ? क्या पहले के और आज के जमाने में अंतर नहीं ?पहले के लोग अशिक्षित थे । इसलिए बेतुकी रीति-रिवाजों और बेवजह के पदों के पीछे अपना समय नष्ट करते रहते थे ।लेकिन आज के लोग इतने शिक्षित होकर भी इतने संकीर्ण विचार-धाराओं के स्वामी क्यों हैं ?आज की स्त्रियां इतना पढ़ लिख कर भी एक दूसरे के कष्टों को क्यों नहीं समझती ? एक दूसरे की भावनाओं की कद्र क्यों नहीं करती ? एक दूसरे का हाथ क्यों नहीं बटाती ? औरत अपने सास की जिन बातों की शिकायत करती है, वही सब बातें अपनी बहु के साथ क्यों करती हैं ? एक औरत का दूसरी औरत के प्रति इतना कठोर और रौद्रपूर्ण व्यवहार क्यों ? औरतों का औरत के प्रति इतनी संवेदनहीनता क्यों?
        सुजाता प्रिय समृद्धि

Saturday, May 6, 2023

कुहू-कुहू कूकती कोयलिया

कुहू-कुहू कूकती कोयलिया,
बैठी अमवा की डलिया ।
कुहू -कुहू हू बोलती कोयलिया,
बैठी अमवा की डलिया।

मीठी धुन में गीत सुनाबे। 
मोरे मन में प्रीत बढ़ाबे।
मन में खिला से कलिया,
बैठ अमवा की डलिया ।

पंचम सुर का राग मनोहर।
सबका मन लेती है तू हर।
बड़ी निक लागे बोलिया,
बैठ अमवा के डलिया।

कितना गाएगी री कोयलिया।
मन में हूक मारे तेरी बोलिया।
दिल में मारे है गोलिया,
बैठी अमवा के डलिया।

पिया परदेश में धुनिया रमाबे
की जाने दूसर ब्याह रचाबे।
ताना मोहे मारे सहेलिया,
बैठी अमुआ की डलिया।

सुजाता प्रिय समृद्धि

Thursday, May 4, 2023

सृजन (हाइकु)

सृजन (हाइकु)

   सृष्टि ने किया           हम सब हैं 
हम सबका सृजन    सृजन प्रकृति के
   मनो योग से ।       लाखों में एक।

 सभी जीवों में         मानव जैसा
मानव है उत्तम     नहीं सृजन देखो
 हाँ संयोग से।         नजरें फेंक।

     जीव जगत             दिया है हमें 
के बुद्धिजीवी प्राणी     अनुपम संदेश 
     कहाते हम।           देखो ईश्वर।

  पर सृष्टि का            हम भी कुछ 
रख-रखाव कर       सृजन करें अब
  न पाते हम।         खुश होकर।

   हमारे लिए              देव सृजन 
भोजन पानी घर     को संवारने का है
 दिया विधाता।          काम हमारा।

    सृजन किया            ईश सृजन 
अन्न-फल औ जल     जैसा हमें सृजन 
    हमें है भाता।          करना प्यारा।

        सुजाता प्रिय 'समृद्धि'

Monday, May 1, 2023

श्रम और श्रमिक (सायरी छंद )

श्रम और श्रमिक (सायली छंद )

श्रम 
करते हम 
श्रमिक भाई जी
श्रमिक हमारा
नाम।

हड्डी
तोड़ कर
है मेहनत करना 
सदा हमारा
काम।

नहीं
मनाते त्योहार
कभी   भी  हम
कैसी होली
दीवाली।

हमें
तो केवल
काम है करना
और करना
रखवाली।

दुःख
अभाव भरा
जीवन है मेरा
सदा दुःखी
रहना।

सुख 
की कल्पना
व्यर्थ सदा है
दुःखी हमको
रहना।

नहीं 
वसन है
तन पर पूरा
नहीं पूरा
खाना।

मन
मार कर
काम करें हम
दुःखी समय
बिताना।
   
सुजाता प्रिय 'समृद्धि'