मन-दर्पण
रमेश नाम का एक कलाकार था। उसे अपनी कला पर बहुत अभिमान था।संयोग से उसकी दोस्ती एक ऐसे कलाकार से हुई, जो कला के क्षेत्र में उससे बहुत आगे था।उसका नाम पुष्कर था। रमेश को उससे ईर्ष्या हो गई। बिचारा पुष्कर आर्थिक तंगियों से घिरा एक निपुण कलाकार होकर भी अपनी कला का प्रदर्शन नहीं कर पाता।उसकी मजबूरियों का लाभ उठाते हुए रमेश ने उससे अपने साथ काम पर रखने का प्रस्ताव रखा। मजबूर पुष्कर भी सहमत हो गया ।रमेश दिन भर उससे मेहनत करवाता। बदले में उसे कुछ रुपए थमा कर कलाकारी का यश स्वयं पाता। कुछ ही दिनों में उसका नाम चारों तरफ फ़ैल गया।फिर एक दिन ऐसा आया जब उसकी कला के लिए प्रदेश मंत्री ने उसे पुरस्कृत किया ।पुरस्कार पाकर वह बहुत खुश हुआ।लेकिन उसके मन के आइने में उसे पुष्कर की छवि नजर आती रही।उसकी अंतरात्मा चीख-चीखकर कह रही थी।इस पुरस्कार को प्राप्त करने का अधिकार तुम्हें नहीं है।बल्कि इसका अधिकारी तो तुम्हारा सहयोगी पुष्कर है। जिसकी कला को तुम चंद पैसे देकर खरीदते रहे।
लोगों की प्रशंसात्मक निगाहें रमेश पर टिकी हुई थी।लेकिन यह निगाहें उसे अपने चेहरे पर चुभती-सी महसुस हो रही थी।जब वह पुष्कर के निकट पहुँचा तब पुष्कर ने उसे उन्मुक्त ह्रदय से बधाई दी । उसकी बधाई संवाद ने तो उसके अंतर्मन को पत्तों की भाँति झकझोर दिया ।चोरों की तरह नजरें चुराते हुए वह पुष्कर के बगल में जा बैठा । पुष्कर ! तेरे पास कुछ रुपए हैं ? डबडबाई आंँखों से निहारते हुए पुष्कर से पूछा।भोला पुष्कर जेबें टटोलता हुआ कुछ पैसे निकाल दिखाया। रमेश ने उसका हाथ पकड़कर खींचता हुआ मंत्रीजी के पास ले गया।और हाथ जोड़ते हुए विनय पूर्वक बोला - माननीय मंत्री महोदय ! मैं अपना पुरस्कार अपने इस प्यारे दोस्त को बेच रहा हूंँ। तुम पुरस्कार बेच रहे हो ? मंत्री महोदय ने आश्चर्य- मिश्रित स्वर में पूछा।
जी हांँ ।
लेकिन क्यों ? पुरस्कार भी कहीं बेचा जाता है ।यह तो मनुष्य की सुकृतियों का प्रमाण होता है ।
हांँ मंत्री महोदय रमेश ने सादर सर झुकाते हुए कहा -आपने ठीक ही कहा कि पुरस्कार मनुष्य की सुकृतियों का प्रमाण होता है। लेकिन सुकृति करने वाले के लिए होना चाहिए ना कि सुकृतियांँ खरीदने वालों के लिए।
मंत्री जी के साथ-साथ उपस्थित सभी माननीय लोग उसे हैरानी से देखा रहे थे।
मैं कुछ समझा नहीं तुम किस सुकृतियाँ खरीदने वाले की बात कर रहे हो और क्यों इसे अपना पुरस्कार बेचना चाहते हो ?
सभी जनों के कोतूहल को मंत्री महोदय ने ही उसके समक्ष रखा।
मंत्री जी रमेश ने पश्चाताप भरे स्वर में कहा - जिन कलाओं के लिए आपने मुझे यह पुरस्कार प्रदान किया है वे उत्कृष्ट कलाकृति मेरी नंही हैं। बल्कि मेरे इस बजबूर दोस्त की है जिसकी मजबूरियों का फायदा उठाकर मैं इसकी गुणवत्ता का दमन करता रहा और जल से चंद रुपयों के बदले इसकी कला को खरीद कर नाम कमाता रहा। एक कलाकार और दोस्त होने के नाते यदि मैं चाहता तो इसे सहयोग और प्रोत्साहन देता और स्वयं भी इससे शिक्षा ग्रहण करता।आज मेरी आत्मा मुझे धिक्कार रही है कि मैंने कपट से अपने दोस्त के ईश्वर प्रदत्त गुणों का लाभ उठाया। इसलिए मैं चाहता हूंँ कि जिस प्रकार इससे इसकी कला खरीदते रहा,उसी प्रकार उसके बदले यह पुरस्कार इसे बेच दूं ।और उसने झट पुष्कर के हाथ से पैसे लिए और पुरस्कार उस के हाथों में सौंप दी ।मंत्री महोदय ने देश के सपूत को गले से लगा लिया। कम-से-कम इसे अपनी गलतियों का एहसास तो हुआ और अपने मन से उसे दूर तो कर दिया ।वहाँ उपस्थित सभी लोगों की नजरें अब पहले से अधिक प्रसंशात्मक दृष्टि से उसे निहारी रही थी।
सुजाता प्रिय समृद्धि
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