लेकर दृढ़ विश्वास हृदय में,पहुंँचा एकलव्य द्रोण के पास। नतमस्तक हो बोला-गुरुवर !धनुर्विद्या की ले आया हूंँ आस।।
कृपया चलाना धनुष सिखा दें,मुझको आप प्रसाद स्वरूप।
छोटे-छोटे कुछ नियम बता दें,मुझ छोटे-बालक अनुरूप।
पूछा-गुरुवर ने,हे अनुगामी! तुम किस कुल के बालक हो।
कौन तुम्हारे मात-पिता हैं ,बोल तुम किसके पालक हो।
बोला-एकलव्य,हाथ जोड़,जंगल की कुटिया में रहता हूँ।
छोटे कुल का बालक हूंँ, रूखी-सूखी खाकर पलता हूंँ।
बोले गुरुवर- मैं तो केवल,राजकुमारों को देता हूंँ शिक्षा। छोटे कुल के बालक हो तो,मत माँगो तुम मुझसे भिक्षा।।
विदीर्ण हृदय से दृढ़ संकल्प लें,एकलव्य आ अपने घर।प्रतिमा, गुरु की एक बनाया,काट-तरास कर एक पत्थर।
नित्य चरण-रज शीष लगता,हाथ जोड़कर मूर्ति के पास। स्वनिर्मित धनुष-वाण ले,दृढ़ मन से नित्य करता अभ्यास।
एक सुबह जब कर रहा था,अभ्यास वह तीर चलाने का।
एक स्वान आ लगा भौंकने,किया प्रयास बड़ा मनाने का।
बहुत उसे पुचकार मनाया,लेकिन बात न माना वह कुत्ता। जितना उसको शांत कराता,उतनी-ही जोर से था भूंकता। भटक रहा था ध्यान एकलव्य का,केंद्रित न कर पाता मन।
सहन न कर पाया अपराध, तिरंदाजी के अभ्यास विरुद्ध ।
कुशलता से तीर चला,कर दिया स्वान का कंठ अवरुद्ध।
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नगर -गाँव से दूर अरण्य में,जाकर गुरुवार द्रोणा चार्य। राजकुमारों को धनुष सीखने का,कर रहे थे पुनीत कार्य। भांँति-भाँति के गुर्र वे गहराई से,शिष्यों को सिखला रहे थे।
बारीकी से तीरंदाजी के कुछ,करतब उन्हें बतला रहे थे। रोमांचित हो सब सीख रहे थे,तिरंदाजी का यह रूप नया।
नई रीति से और नई नीति से नए नियम व स्वरूप नया ।
इसी समय कहीं से भगता,उनका कुत्ता आ गया सिर टेक।
सभी शिष्य और गुरु ने देखा,उसके कंठ में समाये थे तीर अनेक।
गुरु-शिष्य सब हुए अचंभित, तीरंदाज की कुशलता पर।
रक्त का एक भी बूंद न बहा था,स्तब्ध थे इस सफलता पर।
बस उसका कंठ अवरुद्ध था,ताकि वह भौंक नहीं पाए।
अभ्यास करने वाले को,ध्यान भटका कर रोक नहीं पाए। चल पड़े गुरुवर शिष्यों को ले,ढूंढने उस धनुर्धारी को। जिसने उनको दिखलाया था,तीरंदाजी की कलाकारी को।
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तन्मयता से अभ्यास वह,कर रहा था तीर चलाने का ।
अलग-अलग अंदाज में ,निशाना वहांँ वह लगाने का।
ध्यान भंग कर गुरुवर ने पूछा,कौन तुम्हारे गुरु है तात। कौन तुमको तीर चलाने की,यह विद्या देते हैं सौगात।
कहा एकलव्य ने विनीत भाव से,मैंने गुरु आपको मना। प्रत्यक्ष नहीं तो,मूर्त रूप दे,प्रसाद-स्वरूप हर गुण जाना।
वृक्ष के नीचे रखी उनकी प्रतिमा,उसने इशारे से दिखाया।
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