जंजीर तोड़ उड़ चला मैं पंछी
पिंजरे का दरवाजा खोल,
जंजीर तोड़ उड़ जा रे पंछी।
स्वर्ण कटोरा का मीठा फल,
नीर छोड़ उड़ चला मैं पंछी।
जाने कब से हम कैद पड़े थे,
स्वर्ण-पिंजरे में एक राजा के।
रोज मिलता खाने को मेवा,
और पीने को मीठा फल-रस।
मनपसंद निबौरियाँ न मिलती,
न वह पीने को नीर-सरस।
वह स्वतंत्रता के गीत न गाते,
वृक्ष की डालियों पर चहक।
यहाँ न निर्मल वायु मिलता,
नहीं रंगीन पुष्पों की महक।
कहांँ आजादी स्वर्ण-पिंजरे में,
स्व- निर्मित तृण घोंसले जैसा।
पंख हमारे लहू-लुहान हो जाते,
क्या बतलाऊँ वेदना अपना।
मन अवसाद से भरा है रहता,
तरु का झूला लगता सपने-सा।
दो वालिस्त की दुनिया हमारी,
सुध न रहता अपने तन का।
तोड़ वहांँ का सुंदर पिंजरा हम,
अब उड़ आए हम पंख पसार ।
उन्मुक्त गगन में उड़ते जाते,
जाना हमको क्षितिज के पार।
स्वर्ण कटोरा का मीठा-फल
व नीर छोड़ उड़ चला मै पंछी।
सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
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