मैं तेरा बाप (लघुकथा)
एक घंटा में परीक्षा की पुस्तिका जमा कर निखिल अपने दोस्तों के साथ सिनेमा हॉल पहुंँच गया।सीट पर बैठने ही जा रहा था कि बगल की सीट पर बैठे व्यक्ति ने घबराहट पूर्ण लहज़े में पूछा - "तुम इतनी जल्दी यहाँ कैसे पहुंच गए ? क्या परीक्षा अधूरी छोड़ आये ?"
"मैं परीक्षा अधूरी छोड़ आऊँ या पूरी ! इसे पूछने वाले आप कौन होते हैं ?"
चटाक S S S......
तीव्र ध्वनि के साथ एक झन्नाटेदार थप्पड़ उसके गाल पर लगा।वह गाल सहलाता हुआ अंधेरे में उस शख्स का चेहरा देखने लगा। क्या सचमुच......
हाँ-हाँ सचमुच! उसकी नजरें धोखा नहीं खा सकती।अंँधेरे में भी अपने पिता को पहचान सकता हूँ। आखिर उन्हें समझ आ ही गया कि मैं पूरी नहीं लिखता हूँ , इसलिए उत्तीर्ण नहीं होता। इसलिए आज मुझे परीक्षा-भवन तक छोड़कर समय बिताने के लिए सिनेमा देखने आ गये।'हम कितना भी अपने माता-पिता से झूठ बोलें सच्चाई उनके समझ में आ ही जाती है।' कितना भी नजरें बचाकर गलत रास्ते पर चलें,उनकी नजरें उन्हें देख ही लेती है।अब झूठ की चादर हट चुकी थी उसके नीचे के चिथड़े तोसक पर उसके बाप की नजरें पड़ चुकी थी।उन नजरों में प्यार के शैलाब की जगह नफरत और अविश्वास की ज्वार उठा रहे थे।
सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
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