कहते हो तुम झिड़क कर,हुई नहीं तैयार।
समय निकलने का हुआ, दर्पण रही निहार।।
जाने का तो शौक है,पर करती हो देर।
ऊँची जूती ढूंढती,तुम जाने के बेर।।
इसीलिए तो मैं नहीं, लेकर जाता साथ।
देरी करती तुम भला,कौन भुकाता माथ।।
पर क्या जानो तुम पिया,हम नारी की पीर।
सारे काम मैं करती,हो रहे तुम अधीर।।
तुमको लाकर दूँ सदा, कपड़े-जूते पास।
इठलाते हो पहनकर, करते हो उपहास।
सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
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