मेरे मन की बात
ऐसी इच्छा है कुछ मन में,जनहित ऐसे काम करें।
विचलित न हों कर्मपथ से,कभी नहीं विराम करें।।
जग-प्राणि के हित-साधक हो,काम वही करते जाएँ ।
जिससे जन रोशनी पाये,अहर्निश ज्योति जलाएँ ।।
भ्रष्टाचार मुक्त हो भारत,खोखला करे न देश को।
छद्म-रूप धर जो लूटता,उतारू उसके वेश को।।
भेद-भाव को दूर करें हम,जो देश का जंजाल है।
ऊँच-नीच और जाति-धर्म,मन का माया-जाल है।।
विदेशी वस्तुओं का प्रयोग,देश से दूर भगाएंँ हम।
स्वनिर्मित सामान बनाकर,स्वदेशी अपनाएँ हम।।
नव भारत के नववृंद में, नयी चेतना लाएँ हम।
विकास की सीढ़ी गढ़,ऊंँच शिखर चढ़ जाएंँ हम।।
दलगत राजनीति त्याग,शांति-सद्भाव बनाएँ हम।
समाजिक-समता बंधुत्व के,सुंदर भाव जगाएँ हम।।
दीन-दुखी,व असहायों को, सदा ही सुख पहुंचाएँ।
झूठ-विषमता को तज,सच्चाई का अलख जगाएँ।।
हमको अपने भारत को, विकसित राष्ट्र बनाना है।
भेद-भाव को दूर भागकर,समरसता अपनाना है।।
अर्थ-व्यवस्था ऐसी हो,गरीबी की रेखा मिट जाए।
अपना प्यारा देश फिर,सोने की चिड़िया कहलाए।।
जनकल्याण,राष्ट्र-हित में,अपना कर्तव्य निभाएंँ।
पुनः हमारा भारतवर्ष ,विश्वगुरू बन छा जाए।।
सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
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