बेटी के कवन घर
कवन घर में जनमली बेटी दुलारी,
कवन घर में होली स्यान।
कवन घर में बढली-पढ़ली गे बेटी,
कवन घर में होयलो विवाह।
बाबा घर में जनमली बेटी दुलारी,
वहीं घर में होयली स्यान।
बाबा घर में बढ़ली-पढ़ली गे बेटी,
ससुर घर में होयलो विवाह।
हमर घरबा अउर हमर अंँगनमा,
कही-कही झाड़े-बुहारे।
बुटी-कसिदबा से सजबै दलनिया,
दुअरा पर फुलबा लगाबै।
होयते विवाह पराया होलै बेटिया,
घरबा से छुटलै अधिकार।
घरबा के नाम अब भेलै नइहरबा,
त्यागी देहो सब माया-मोह।
डोलिया पर बैठी जब गेलै ससुरालिया,
वहौं पराया व्यवहार।
हमर घर कहै सासु औ ननदिया,
गोतनी कहे हमर राज।
मने-मने रोबै अब बेटी दुलरिया,
अखिया में डब-डब लोर।
अइसन विधान काहे बनैला ये बिधि,
बेटी के कउनो घर न ठौर।
सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
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