बालेपन अपना है खो रहा।
हां वसंत अब जवान हो रहा।
झड़ गई पेड़ों की मंजरियां।
लटक गईं असंख्य निबौरियां।
यौवन से लदे हुए पेड़ों के,
फलों में बीज है बो रहा।
हां वसंत अब ज़बान हो रहा।
कर रहा प्रकृति से ठिठोलियां।
मधुर बयार से कर हठखेलियां।
किलोल कर रहा है प्रेम से,
भोलापन अपना है खो रहा।
हां वसंत अब जवान हो रहा।
तितलियों के नृत्य जम रहे।
भंवरों के मीठे गीत थम रहे।
सुगंध से सुवासित दिशां-दिशा,
कोयल भी मीठा तान खो रहा।
हां वसंत अब जवान हो रहा।
इच्छा प्रवास की ले प्रबल।
बुला रहा ग्रीष्म को हो विकल।
विदाई में हाथ को डुला कर,
दो दिनों का मेहमान हो रहा।
हां वसंत अब जवान हो रहा।
सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
स्वरचित, मौलिक
कर रहा प्रकृति से ठिठोलियां।
ReplyDeleteमधुर बयार से कर हठखेलियां।
किलोल कर रहा है प्रेम से,
भोलापन अपना है खो रहा।
हां वसंत अब जवान हो रहा
बहुत ही प्यारा सृजन सुजाता जी एकदम प्रकृतिवादी कवियों वाली शैली | मन आनन्द से भर गया पढ़कर | ये बसंत मुबारक हो - सदैव सदैव युवा बसंत | हार्दिक शुभकामनाएं और प्यार सखी |
हार।लिंक आभार सखी!सादर नमस्कार
ReplyDeleteबसंती जीवन का सुंदर मधुर गान,बहुत बढ़िया ।
ReplyDeleteसादर धन्यवाद सखी!
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