बात उस समय की है- जब मैं पहली कक्षा में पढ़ती थी।दादाजी अपना कलमदान खोलकर कोई जरूरी कागजात ढूंढ रहे थे। उत्सुकताबस मैं उनके कलमदान से निकलने वाली प्रत्येक वस्तुओं के नाम एवं इस्तेमाल पूछती और दादाजी बताते जाते ।लेकिन कुछ देर बाद दादाजी मेरे प्रश्नों से ऊबने लगे।क्योंकि उन्हें वह कागजात मिल नहीं रहा था। कलमदान से निकालकर बीस पैसा मुझे थमाते हुए बोले जा दुकान से कुछ खरीदकर खा लो।मैं खुश होकर सामने वाली दुकान गई । दुकानदार ने पूछा क्या चाहिए? पर मेरे लिए यह निर्णय कर पाना कठिन था कि क्या लूँ।
मैं दुकान में रखी सामग्रियों को देखने लगी।अचानक मेरी नजर ढेले वाले गुड़ पर पड़ी।मैं झट उधर इशारा कर दी।दुकानदार ने मेरे हाथ से पैसे ली और दोनों हाथों में एक-एक ढेला गुड़ थमा दी।
घर आकर मैं एक ढेला-गुड़ अपनी बहन को दी और स्वयं गुड़ खाने लगी। उसी समय बगल की एक बुआ की नजर हम पर पड़ी और वह मेरी माँ को पुकारती हुई बोली-ये दोनों गुड़ खा रही हैं।
माँ ने कमरे से निकल कर गुस्से से कहा -अभी पीटती हूँ। मैं सोची माँ से बिना पूछे दुकान चली गई इसलिए माँ मुझे पीटेगी।डर से मैं भागती हुई पिताजी के पास पहुँची ।पिताजी बगीचे की सफाई करबा रहे थे। बगीचा मेरे घर से थोड़ी दूर पर था।पिताजी ने कई बार मुझे घर जाने के लिए कहा,पर मैं नहीं गई।तब उन्होंने मुझे अपने पास बैठा लिया।शाम ढल गई ।पिताजी ने कहा क्यों इतनी देर रही ।स्वेटर भी नहीं पहनी।कितनी ठंढ है।उन्होंने अपने सिर पर पहनी मंकी- कैप को मुझे पहना दिया जिससे मेरा पूरा सिर और गर्दन ढक गया।फिर अपना मोटा तौलिया ओढ़ाकर घर ले चले।रास्ते में जितने लोग मुझे देखते पुचकारकर पूछते क्या री बंदरिया? एक चाचा जी ने तो पिता जी से पूछ लिया -इस बंदरिया को कहाँ से पकड़ लाये ।पिताजी मुस्कुरा कर रह जाते और मैं अपना नया नाम सुनकर खुशी से इतराती हुई घर पहुँच गई।माँ को देख अपराधबोध से मेरी नजरें झुक गई।
पिताजी ने माँ से पूछा- इसे मारा था क्या ?यह इतनी देर मेरे पास क्यों रही?
माँ ने कहा -मारी तो नहीं, मारने जा रही थी।
पिताजी ने पूछा-क्यूँ?
माँ बोली- माधुरी बोली कि यह गुड़ लेकर खा रही है। मुझे लगा गणेश-चतुर्थी के लिए गुड़-तिल मंगाई उसे जूठा कर दी ।परन्तु पूजा घर के पास आई तो देखी पूजा घर का दरवाजा बंद है। उसकी सिटकनी इससे खुल ही नहीं सकती।लेकिन तब-तक यह भाग चुकी थी। बाबूजी ने बताया -मैने इसे पैसे दिए थे उसी से गुड़ खरीदकर खा रही होगी।
अब सारी बातें मेरी समझ में आ गईं कि ना माँ बिना पूछे दुकान जाने के लिए नाराज थी, ना गु़ड़ खाने के लिए और ना ही बाहर जाने के लिए।बस मेरे मन में ही एक अपराध बोध का भय था।आसमान में चाँद लाल आभा के -साथ निकल आया था माँ ने चाँद देखकर गणेश-भगवान का पूजन किया।और प्रसाद बाँटा। मैं खुश होकर खाई और मन में संकल्प की कि माँ से बिना पूछे कुछ भी नहीं करूँगी।यदि मैं माँ से पूछ कर दुकान जाती तो इतनी बातें ही नहीं बढ़ती।
सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
स्वरचित एवं सच्ची घटना
वाह सखी सुजाता जी ! माँ की ममता पि , पिता और दादा जी की महीन वात्सल्य भरी गुड सी मीठी याद | बालपन में बिना बात के भ्रम उपजते हैं जो संस्कारों की स्थायी नींव बनते हैं | और माँ की ममता कभी इतनी निष्ठुर नहीं होती जितना बालमन समझ लेता है | भोले से इस संस्मरण के लिए हार्दिक शुभकामनाएं सखी |
ReplyDeleteसादर धन्यबाद सखी। हमेशा की तरह आपकी प्रतिक्रिया से मन में हौसला और प्रसन्नता का संचार हुआ।सारी रचना पढ़ने समझने और भावपूर्ण प्रतिक्रिया व्यक्त करने के लिए हृदय तल से आभार।सादर नमन।
ReplyDeleteसादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (01 -9 -2020 ) को "शासन को चलाती है सुरा" (चर्चा अंक 3810) पर भी होगी,आप भी सादर आमंत्रित हैं।
---
कामिनी सिन्हा
बहुत-बहुत धन्यबाद एवं आभार सखी।
Deleteगुड़ की कली-सी ही मीठी लघुकथा।
ReplyDeleteसादर धन्यबाद भाई।
Deleteवाह ! मधुर संस्मरण
ReplyDeleteसुक्रिया सखी अनीता जी।
Deleteसुक्रिया सखी अनुराधा जी।
Deleteबेहद खूबसूरत संस्मरण।
ReplyDeleteबहुत-बहुत सखी।
Delete