घंटों से रही थी मैं बाट जोह।
हर जगह थी जिसकी टोह।
नजरें फेंक चहुँ ओर तलाशी।
दिखी न मन में भरी उदासी।
एक गाड़ी आकर हुई खड़ी।
थी मानवों से खचाखच भरी।
कुछ मानव बैठे थे कुछ खड़े।
कुछ थे दरवाजे के साथ अड़े।
कुछ थे हत्थे-पृष्ठों पर अटके।
कुछ थे पायदानों पर लटके।
कुछ बैठे चढ़ छत के ऊपर।
जान को हथेली पर लेकर।
उतरने लगे सब रेलम-पेल।
लोगों और सामानों को ठेल।
सबको घिसते-पिसते उतरे।
चीख-पुकार सब करते उतरे।
बुड्ढों की लाठी को धर रोका।
बच्चों को हाथ पकड़ रोका।
महिला , महिला से झगड़ी।
गाली दी और झोंटे पकड़ी।
उतरने की देख आपा-धापी।
मन-ही-मन में मै थी काँपी।
घूम-घूम कर रही थी तलाश।
मानवों से मानवता कीआस।
ले मानवों से भरी इस गाड़ी से।
मानवता की आस नर-नारी से।
मैं आवाक देखती रह गई खड़ी।
मानव उतरे मानवता ना उतरी।
सुजाता प्रिय
२४.०३.२०२०
जी सादर नमन। मेरी रचना को साझा करने के लिए बहुत-बहुत धन्यबाद
ReplyDeleteले मानवों से भरी इस गाड़ी से।
ReplyDeleteमानवता की आस नर-नारी से।
मैं आवाक देखती रह गई खड़ी।
मानव उतरे मानवता ना उतरी।
बहुत खूब .... ,सादर नमन
बहुत-बहुत धन्यबाद सखी।सादर नमन।
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteधन्यबाद भाई।
Deleteवाह!!!!
ReplyDeleteक्या बात...बहुत लाजवाब सृजन
मानता न उतरी...
मानवता तो बेच खा चुके लोग
बहुत-बहुत धन्यबाद सखी!
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