,कहाँ खोया रे बचपन ?
हाय कहाँ खोया रे बचपन,
खेल-खिलौने सब छोड़कर।
तुतली बोली से रूठकर,
भोलापन से मुख मोड़कर।
कहाँ गए वे लट्टू - घिरनी,
और कहाँ वे गिल्ली - डंडे।
साँप-सीढ़ी,लूडो - शतरंज,
और वे ब्यापारी के फंडे।
इक्खट - दुक्खट का मजा,
वह कित-कित-कित करना।
रूमाल - चोर, ओ सम्पाजी,
वो आँख-मिचौनी का छुपना।
कहाँ गया वह गेंद और पिट्टो,
कूदना और फांदना रस्सी से।
रेल बनाकर बम्बई को घुमना,
और झूला झूलना मस्ती से।
लउवा - लाठी, चंदन - काठी,
आईस-पाईस, चोर - सिपाही।
अटकन-मटकन दही-चटाकन,
और वो दोस्तों की गलबाहीं।
आहा,क्या थे दिन बचपन के,
मन में कोई क्लेश नहीं था।
ना किसी से शिकायत शिकवा,
किसी से भी वैर- द्वेष नहीं था।
बड़े हुए तो खेलने पड़ते हैं,
जिम्मेदारियों के बड़े-बड़े खेल।
छूट गए सब संगी - साथी,
नहीं किसी से हो पाता है मेल।
सुजाता प्रिय
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