छाया
कहाँ पाएँ हम थूप में छाया।
कैसे ठंढी हो अपनी काया।
पहले सड़कों पर हम चलते थे।
दस कदमों पर पेड़ मिलते थे।
चलने से थक जाते थे हम।
छाया में बैठ सुस्ताते थे हम।
पेड़ बने अब मील के पत्थर ।
छाया मिलेगी अब हमें किधर।
हम पेड़ों को काट रहे हैं।
दीमक बनकर चाट रहे हैं।
घर में भरे हुए हैं फर्नीचर।
घट रहे हैं पेड़ भूमि पर।
हमें नहीं पेड़- पौधों पर माया।
कौन देगा फिर हमको छाया।
एक-एक यदि हम पेड़ लगाते ।
शायद छाया का सुख पाते।
सुजाता प्रिय
बेहतरीन...
ReplyDeleteसादर..
जी धन्यबाद।आभारी हूँ
Deleteसादर
बहुत ही सुन्दर।
ReplyDeleteधन्यबाद बहन! आपसे बात कर बहुत अच्छा लगा।साभार।
Deleteबहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteधन्यबाद बहन।प्रसंशा एवं प्रेरणा के लिए ।सादर
Deleteबहुत सुंदर सार्थक सृजन ।
ReplyDeleteजी सादर धन्यबाद।
Deleteजी दीदीजी नमस्कार।मेरी रचना को "पाँच लिकों के आनंद में" साझा करने के लिए बहुत बहुत धन्यबाद।सादर आभारी हूँ।
ReplyDeleteजी सादर धन्यबाद।
ReplyDeleteबेहतरीन रचना प्रिय सखी
ReplyDeleteसादर
धन्यबाद सखी ।उत्साहबर्धन के लिए।साभार
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteधन्यबाद बहन ।आभारी हूँ।
Deleteबेहतरीन सृजन..... सादर
ReplyDeleteजी सादर धन्यबाद।
Deleteवाह!!लाजवाब रचना!
ReplyDeleteजी बहन धन्यबाद।
Deleteबहुत खूब... पेड़ों के बिना छाया कहाँ...
ReplyDeleteबेहतरीन रचना....
वाह!!!
धन्यबाद बहन।
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