हमजोली..
एक बार छुटपन में मेरे,
हुई बगल में शादी।
माँ- पिताजी के साथ वहाँ
गई मैं और दादी।
जगह- जगह पर बनी हुई थी,
मेहमानों की टोली।
आपस में सब बोल रहे थे,
तरह- तरह- की बोली।
दादी की टोली में,
बैठी- बैठी- मैं उकताई।
उनकी चिरपुरातन बातें,
समझ न मुझको आईं।
झट- जा बैठी-मैं,
पिताजी के साथ नर्मी से।
राजनीति की बहस छीड़ी थी,
वहाँ बड़ी सरगर्मी से।
सोची माँ की टोली में,
शायद मन लग जाए।
पर गहने- कपड़ों की,
तारीफें मुझे न भाईं।
रंग- बिरंगी तीतली जैसी,
दिखी हमजोलियों की टोली।
तोतली- मीठी बातों में ,
हो रही थी खूब ठिठोली।
उनके पास बैठ घुलमिल,
मन- ही- मन से बोली।
सबको भाता है रे मन,
हमउम्र- हमजोली।
सुजाता प्रिय
वाहह्ह्ह... बहुत सुंदर रचना..👌
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद स्वेता।
Deleteबेहद सशक्त लेखन ... आभार
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद भाईजी ।सादर आभार।
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