जल विधि हम कृष्णा है आशिकी थोड़ा तो जीने।
उड़ती-फिरती हम अंबर में बिपाशित मन से होकर व्याकुल।
दूर-दूर तक जल न दिखता, शुष्क मन से होकर आकुल।
कंठ को कुछ ठंढक पहुंचाएंँ आ सखी थोड़ा तो पीले।
कहांँ मिलेगा अब हमको पानी विलुप्त हुए अब ताल-तलैया।
नदिया बन गई सकरी नाली-सी तट-बंध पर बन गई मड़ैया।
छत पर यह थाल समंदर जैसा,आ सखी थोड़ा तो पीले।
नीड हमारा अभी दूर है नगर गांँव से दूर अरण्य में ।
अब तो सपना हुआ हमारा,नीड बनाना वन-उपवन में। वृक्ष बिना यह बस्ती सूनी आ सखी थोड़ा तो पीलें।
अब तो मानव जन गीत न गाते,आ री चिरैया मेरे आंँगन । मुन्नी-मुन्ना का मन बहलाओ, चहक-चहक कर गीत रिझाबन।
किसी को हमारी फिक्र नहीं है आ सखी थोड़ा तो जी लें।
अब तो मानव भूल गए हैं,छिटना छत पर चावल के दाने।
पशु-पक्षियों पर मोह घटा है,व्यस्त हुआ है अब उनका जीवन।
किसी को हम पर मोह नहीं है ,आ सखी थोड़ा तो जी लें।
पहले घर के रोशनदान में,हम अपना थे नीड़ बनाते।
मुन्ने-मुनिया के गिरे जूठन को,उठा चोंच से हम थे खाते। रोशनदान खिलौने से सजा है,आ सखी थोड़ा तो जी लें सुजाता प्रिया 'समृद्धि'
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