Thursday, November 17, 2022

मेरी मर्जी (लघुकथा)


          मेरी मर्जी (लघुकथा)

 संदीप का मन भूख से व्याकुल हो रहा था।ऐसे में मम्मी का मुँहतोड़ जवाब सुन मन बड़ा विचलित हो जाता। अब उसमें हिम्मत नहीं थी कि फिर पूछे भोजन कब बनाओगी ? दोपहर से कई बार पूछ लिया भोजन कब बनाओगी ?भोजन में क्या-क्या बनाओगी ? इन सभी सवालों का बस एक ही जवाब होता 'मेरी- मर्जी' । सुबह के नाश्ते के बाद तो कुछ खाने नहीं मिला। ना ही कहीं डब्बे में कुछ रखा मिल रहा,ना ही फ्रीज में कुछ बचा-खुचा है। आखिर खाऊँ-तो क्या खाऊँ ? उससे पूछूंगा तो बस एक ही जवाब देगी  'मेरी मर्जी'। रोज तो ऐसा नहीं करती थी। सभी चीज समय पर बनाकर स्वयं ही पूछा करती थी खाना परोसूँ ? खाना कब खाइएगा ? नाश्ता कब करेंगे ? लेकिन,आज घर में अकेला हूंँ तो चादर तान कर सोई है।ना बनाती है,ना खिलाती है,ना पूछने आती है।
पूछने पर भी यही जवाब देती है कि 'मेरी मर्जी'।आखिर कहांँ से सीखा उसने यह 'मेरी मर्जी?
वह मन-ही-मन झूंझला उठा ।मुझसे। अनायास उसके मुँह से निकल पड़ा।मन ने तुरंत स्वीकार किया । हांँ-हांँ मुझ से ही सीखा है।यह मेरा ही तकिया कलाम है।

 शादी के इतने साल बीत गए।वह बेचारी हमेशा पूछती है कि -आप क्या खाएंँगे  ? कब खाएँंगे ? क्या पहनेंगे ?कब आएगे? कब जाएँगे बगैरा-बगैरा।और मेरा जवाब होता है- 'मेरी मर्जी' । अब उसे गुस्से के बजाय अपनी गलती का एहसास हो रहा था।
 ओह मैं इतने वर्षों से उसे 'मेरी मर्जी' का जवाब दे रहा हूंँ,तो उसे कैसा लगता होगा । अपने जवाब को सुनकर कुछ घंटों में ही जब मैं परेशान हो गया।
रोज वह मजबूर थी ।मांँ- पिताजी के लिए तथा बच्चों के लिए उसे भोजन बनाना था । लेकिन आज बच्चे भी मांँ-पिताजी के साथ गांँव चले गए । आज ना उसे बच्चों के लिए खाना बनाना है,और ना माँ- पिताजी के लिए । इसलिए उसने मेरी मर्जी को अपनी मर्जी बना ली और मुझे .................।
अब वह 'मेरी मर्जी' की अकड़ भूलकर पम्मी को हाथ पकड़ कर उठाते हुए कहा- उठ पम्मू !आज तुम अपनी मर्जी का ही कुछ बनाकर खिला दे । पेट में चूहे कूद रहे हैं यार ! अब मैं तुम्हें कभी भी 'मेरी मर्जी' कह कर नहीं सताऊंँगा।हाथ जोड़ता हूँ, कान पकड़ता हूंँ।
             सुजाता प्रिय 'समृद्धि'

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