मत बेचो बसंत
गांव की टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियों पर चली जा रही रागिनीजी की नजरें खेतों की क्यारियों में लगे रवि फसलों के लहलहाते पौधों पर टिकी थी।उन लहलहाते पौधों को देख उनके मन में एक अलग प्रकार का उमंग भर आया । बसंती हवा की सरसराहट के साथ पौधे इस प्रकार झूम रहे थे जैसे बसंत के आगमन पर अपना मनमोहक नृत्य प्रस्तुत कर रहे हों। वह स्वयं ही उस मनमोहक दृश्य को देखकर मंत्रमुग्ध थी। खेतों में सरसों के पीले फूलों को देख मन में एक अजीब स्फुरन हो रहा था। एक अजीब-सा खुशनुमा माहौल छाया था गाँव में। खेतों की क्यारियों में रवि फसल के पौधों को देख ऐसा लग रहा था, जैसे धरती ने अपने अंग में हरे मखमल के दुशाले ओढ़ लिये हों । मौसमी फूलों की भीनी-भीनी खुशबू और उन पर मंडराते भौंरों को देख ऐसा प्रतीत हो रहा था, जैसे वे उन मनमोहक स्वरूप को, उसके लावन्य को आत्मसात कर लेना चाहते हों।अब वे अपने बगीचे में पहुंच गईं। अनायास पक्षियों के झुण्ड ने अपने किलोल से उसे अपनी ओर आकृष्ट किया।वह उधर देखने लगी। चिड़ियों ने चहककर डाली को झकझोरा।डाली में लगी मंजरियों को देख उनकि मन-मयूर नाच उठा। इस बार अच्छे फल लगने के आसार हैं।यह विचार आते ही अपराध-बोध से उसका मन भर उठा। आखिर क्यों वह इन खेतों को, बेचना चाहती है। क्यों बगीचे के पेड़ों को कटवाना चाहती है। सिर्फ मन के जलन से कि इन्हें जेठानी के बेटे भोगेंगे। आखिर जेठानी और उनके बेटे के गांव में रहने पर ही तो हमारा गांव में आना और इन मनोहारी दृश्यों के दर्शन हो पाते हैं। हम तो शहर में आलिशान महल में रहते हैं। मुझे बेटे नहीं हैं तो क्या हुआ। जेठानी के बेटे भी तो,बेटे का शौक पूरा करते हैं।मेरी बेटियों के भाई तो वहीं हैं ।उन्हें क्या कमी ? दोनों बेटियां डाक्टर-इंजिनियर हैं।
उसे पति ने कितनी बार मना किया था। गांव के खेत और बगीचे हमारे जीवन के बसंत हैं ।हम उन्हें नहीं बेचेंगे। लेकिन उसका मन........ओह वह परेशान-सी अपने लियावन के लिए आती जेठानी को देखकर बुदबुदा उठी -हाँ-हाँ हम नहीं बेचेंगे अपना वसंत।
सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
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