सभी घरों के काम निपटा कर कजरी करुआ के साथ बाजार पहुंची। लोगों के हाथों में सोने-चांदी के जेवरों वाले डब्बे देख मन मारती हुई बुदबुदाती है-सुना है धनतेरस में पीतल के बर्तन खरीदना ज्यादा शुभ होता है। लेकिन पीतल के बर्तनों के दाम सुन सोची यह लेना उसके वस में नहीं। स्टील का बर्तन ही देखती हूं। लेकिन स्टील के छोटे-से-छोटे बर्तन के दाम दोगुने हैं।यह बर्तन खरीद लेगी तो करुआ के बापू की दवाईयां.....।पगार के आधे पैसे तो कर्ज उतारने में ही चले गए।जितने बचे उनसे महीने भर के भोजन-पानी। सारे पर्व-त्योहार भी निपटाने हैं। बर्तनों के दाम पूछती वह आगे बढ़ गयी।
आ मां! सबसे अच्छा बर्तन इ है।करुआ मां की मन: स्थिति को बदलने के लिए मिट्टी का गुल्लक दिखाते हुए बोला। कजरी उल्लसित हो बोल उठी-हां यह बर्तन हमारे घर नहीं । इसमें हम बचत के कुछ पैसे रखेंगे। थोड़े धन जमा होंगे।जरा सुंदर रंग वाला लेना।
करुआ सादा गुल्लक उठाते हुए बोला उसका दाम दस रुपए है।यह पांच रुपए वाला ले चलते हैं, घर में रंग लेंगे ना।
घर आकर करुआ ने गुल्लक को पीले रंग से रंग कर तख्ती पर रखते हुए कहा-देख माय।यह पीतल जैसा लग रहा है न।
बिल्कुल बेटा ! कजरी ने आंखों में छलक आए आंसुओं को पीकर मुस्कुराते हुए कहा-संतोष ही सबसे बड़ा धन है।
सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
स्वरचित, मौलिक
बहुत -बहुत धन्यवाद आ.कामिनी जी।
ReplyDeleteवाह! सुंदर लघु कथा
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद सखी !
ReplyDeleteहृदय स्पर्शी लघुकथा।
ReplyDeleteनिर्धन का दर्द उकेरती कथा।
जी आभार सखी !
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