प्रथम रश्मि ले आया सूरज,
फैलाकर किरणों के तार।
दूर क्षितिज में फैली लाली,
स्वर्ण-मंजूषा सा उपहार।
शाम ढली,चंदा मुस्काया,
अब तो राज हमारा है।
काली रात के अंधियारे में,
हमसे ही उजियारा है।
रजनी ने ओढ़े तिमिरांचल,
सुभग सितारें जड़े हुए।
नन्हें-नन्हें दीप सरीखे,
झिलमिल करते सजे हुए।
दूर कहीं है छाया बादल,
लगता बड़ा सुहाना है।
झूम-झूम लहराकर हँसता,
रिमझिम जल बरसाना है।
दूर क्षितिज में उड़ते जाते,
खग-कुल अपने पंख पसार।
चहक-चहक कलरव करते हैं,
पाकर क्षितिज का विस्तार।
असीम क्षितिज का है संदेशा,
कि यहाँ कोई विराम नहीं है।
बढ़ना है, बढ़ते जाओ तुम,
रुकने का अब नाम नहीं है।
.
सुजाता प्रिय'समृद्धि'
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में सोमवार 18 मई 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteजी सादर धन्यबाद दीदीजी!मेरी रचना को पाँच लिकों के आनंद में साझा करने के लिए।हार्दिकआभार।
ReplyDeleteवाह सुन्दर प्रेरक प्रस्तुति
ReplyDeleteजी सादर धन्यबाद।
Deleteवाह दीदी बहुत सुंदर रचना।
ReplyDeleteभाषा का लालित्य आपकी रचनाओं में सहज दृष्टिगत होता है।
सुंदर और सार्थक सृजन दीदी।
बहुत-बहुत धन्यबाद श्वेता।मेरी रचना की भाषा लालित्य एवं भावों को समझने के लिए।शुभकामनाएँ।
Deleteबेहद खूबसूरत रचना
ReplyDeleteसादर धन्यबाद सखी अनुराधा जी!
Deleteवाह! शानदार अभिव्यक्ति सखी.
ReplyDeleteसादर
जी बहुत-बहुत धन्यबाद सखी!
Deleteवाह!!!!
ReplyDeleteदूर क्षितिज में उड़ते जाते,
खग-कुल अपने पंख पसार।
चहक-चहक कलरव करते हैं,
पाकर क्षितिज का विस्तार।
लाजवाब सृजन...।
सादर धन्यबाद बहना!
ReplyDelete