प्रस्तुत कविता मेरे द्वारा रचित मेरी पहली कविता है। जिसे मैंने वर्षों तक शब्दों में बाँधा, भावों में पिरोया।कितनी बार उदास हुई , कितनी बार हताश हुई । फिर भी मेरी यह वही प्रेरणादायिनी कविता है जिसने मुझे कविता-कहानियाँ रचने के लिए प्रेरित किया।
जब मैं छठवीं कक्षा में पढ़ती थी , तो कविवर "हरिवंश राय बच्चन " जी द्वारा रचित " आ रही रवि की सवारी" कविता पढ़ना था।कक्षा में शिक्षक द्वारा सारे प्रश्नोत्तर कराये गये।लेकिन उसमें एक करनीय कार्य था कि "जा रहा रवि की सवारी "शीर्षक पर एक कविता लिखें। शिक्षक से इसका उत्तर पूछा तो उन्होंने कहा यह तो स्वयं लिखना है ।पर उस वक्त एक पंक्ति भी लिखना मेरे वश में नहीं था।लेकिन मन में यह अपराध बोथ हमेशा रहता कि मैं अपना वह कार्य नहीं कर पायी। तब से मैंं यदा-कदा प्रयुक्त कविता को रचने का प्रयास करती रही।अंततः माता सरस्वती की असीम अनुकंपा से मैं इस कविता को रचने मे कामयाब रही।शायद यह अभी भी त्रुटिपूर्ण है।
प्रस्तुत
जा रही रवि की सवारी
किरण - रथ धुंधला पड़ा है ।
कलि-कुसुम मुरझाया खड़ा है।
बादलों -से अनुचरों ने कंचन वसन पल में उतारी ।
जा रही रवि की सवारी।
विहग बंदी और चारण।
वापसी का गाये गायन।
दौड़कर मैदान आई, तारकों की फौज सारी
जा रही रवि की सवारी ।
चाहती मिल लूँ विदा कह।
पर ठिठकती देख कर यह।
रात का राजा के आगे,लग रहा है स्वयं भिखारी।
जा रही रवि की सवारी।
सुजाता प्रिय
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