पालकी सजा , सजा री बदरिया।
घनघोर घटा तू ओढ़ा दे ओहरिया।
आ रे पयोधर लट सुलझा दे।
मेघ तू मेंहदी,बिंदिया सजा दे।
काली मेघा लगा दे कजरिया।
आज बनूँगी मैं तो बहुरिया।
पहनकर बरखा झमझम चोली।
सखी घन से वह हँसकर बोली।
पहना आकर भींगी चुनरिया।
खोइछा-पुड़िया भर दे अचरिया।
हइया , हइया गीत तू गाकर।
कांधे मेरी पालकी उठाकर।
तेज चाल से चल रे कहरिया।
ले चल हमको पृथवी नगरिया।
रात घनेरी राह न सूझे।
पंथ पुराने लगे अनबूझे।
रोशनी हमें दिखा री बिजुरिया।
धरा मिलन की आई बेरिया।
सुजाता प्रिय
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक
२४ जून २०१९ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
पाँच लिकों के आनंद पर मेरी इस छोटी-सी रचना को साझा करने के लिए धन्यबाद श्वेता। धन्यबाद
Deleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteबहुत- बहुत धन्यबाद बहन।
Deleteबेहतरीन सृजन सखी
ReplyDeleteसादर
सादर धन्यबाद सखी।
Deleteबहुत सुंदर माटी की महक लिए आंचलिक सौंदर्य के साथ सरस सृजन।
ReplyDeleteबहुत अच्छा लगा सखी।सादर धन्यबाद उत्साह बढ़ाने के लिए।
Deleteलोक भाषा में सजी बहुत ही सुंदर, मनमोहक रचना...
ReplyDeleteबहुत- बहुत धन्यबाद बहन।सादर
ReplyDeleteवाह ! क्या कल्पनाशीलता है !!! लोकभाषा के माधुर्य से सजी सुंदर रचना !!!
ReplyDeleteजी सादर धन्यबाद सखी
Deleteमिठी बोल वाली रचना। मन प्रसन्न हो गया
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यबाद
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