Wednesday, February 26, 2025

जाएँ बोल कहाँ हम

अंध कक्ष से झांक रही मैं,
               भारत का रूप निराला।
नव भारत के स्वतंत्र रूप में,
                 सबका मुंँह है काला।
भारत माँ बैठी सिसक रही 
                नहीं है कोई रखवाला।
रक्षक ही इसको लूट रहे,
                 करते गड़बड़-घोटाला।
एक स्तम्भ है बेकारी का,
               एक पूर्ण भ्रष्टाचारी का।
ये दोनों शक्ति भूज है,
            रिश्वतखोर अधिकारी का।
दोनों के बीच दबा हुआ है,
             हम नवयुवकों का गर्दन।
मन कुण्ठित जीवन असुरक्षित,
         बस रहा भविष्य का चिंतन।
नव भारत के नव वृंद हम,
                    छुपा रहे हैं मुखड़ा।
यहाँ सभी हैं एक सरीखे,
                   किसे सुनाएंँ दुखड़ा।
घोटाले कर लूट रहे हैं,
                   भारत माँ को रक्षक।
सिसक रही बैठी माँ मेरी,
                बेटे बन बैठे हैं भक्षक।
त्रस्त-भविष्य की असह पीड़ा से 
                      व्याकुल हो रहै हम।
भ्रष्ट हो गया अपना ही घर,
                   जाएँ और कहांँ हम।

                  सुजाता प्रिय 'समृद्धि'

Friday, February 21, 2025

हुआ सवेरा

हुआ सवेरा 

हुआ सवेरा, छटा अँधेरा
     आया स्वर्ण- विहान। 
नीड़ में सोयी चिड़िया जागी, 
      गायी स्वागत- गान। 
 रंग - बिरंगे  फूल खिलें है, 
     मुख पर ले मुस्कान। 
रंग- बिरंगी उड़ी तितलियाँ,
      कर  रहे  रस  पान। 
कली- कली पर भौरें गाते। 
       छेड़ मनोहर तान।
गैया जागी बछड़ा जागा, 
    शोभ रहा है बथान। 
आओ हम सब भी कर लें, 
      कुछ नवल संधान। 

  सुजाता प्रिय 'समृद्धि'

Thursday, February 20, 2025

श्रद्धा कर्म



श्रद्धा कर्म 

आज स्वर्गीय पूर्णिमा देवी जी का बारहमा ......।
सात गाँव की भोज व्यवस्था ........
एक सौ आठ ब्रहामणों का वस्त्र -छंदा सहित भोज........
 स्वजन तथा दूर-दूर के नाते-रिश्तेदार न्योते पर पधारे हैं।
     अपना घर तो क्या पास-पड़ोस के घरों में मेहमानों को ठहराया गया है।सभी के रहने एवं खाने पीने की उत्तम व्यवस्था.....भोज के सारे भोजन पूर्णिमा देवी के पसंद के बनाए जा रहे ............।

    सेज दान का कार्यक्रम........। बड़ी बहू ने सुंदर सा दीवान पर मुलायम तोसक- तकिया,मसनद और सुंदर कीमती चादर लगवाते हुए कहा -"मांँ जी को दीवान का बहुत शौक था इसलिए मैंने दीवान......।"
 बड़े बेटे ने श्रद्धा पूर्वक सोने की अंगूठी चढ़ाते हुए -"माँ ने अपने सारे गहने बेचकर मुझे इंजीनियरिंग पढ़ाया इसलिए मैंने माँ के लिए यह अँगूठी खरीदी है।"   
   मंझली बहू कीमती श्रृंगार-प्रशाधन रखते हुए -"माँ जी को सजने-संवरने का बहुत शौक था। इसीलिए मैंने श्रृंगार...... ।"
मंझला बेटा नोटों से भरा बटुआ रखते हुए  -" माँ-ने घर-खर्चे में कटौती कर मुझे शिक्षा दिलवाई इसलिए एक महीना का पगार मैं माँ के नाम..........।"
    सभी के मुँह से वाह-वाही सुन बेटियांँ भी कहाँ चुकने वाली थीं। बड़ी बेटी  पायल और बिछिया तथा छोटी बेटी मंगलसूत्र और सिंदूर की डिबिया चढ़ाती हुईं बोली -"माँ ने हम दोनों की शादी में खेत,आधा घर और बगीचे बेचकर दोनों दामाद इंजिनियर लाया हमने भी माँ के लिए यह सामान..........."
उनकी ननद, देवरानी,बहनें,भाभी व अन्य रिश्तेदारों के तरफ से भी कपड़े, श्रृंगार -प्रसाधन मिठाइयांँ,फल मेवे इत्यादि.........।
उनके सबसे छोटे बेटे के पास जाकर चाचाजी ने सलाह देते हुए कहा -"बेटा ! तुम भी अपनी कमाई का कुछ अंश माँ के नाम दान कर दो ,माँ को स्वर्ग में सुख मिलेगा।"
 लेकिन वह अफसोस भरी नजरों से दान के सारे सामानों को देखता रहा।
   " क्यों तुम नहीं दोगे कुछ ?"
 बड़े भाई ने प्रश्न किया तो पिताजी ने कहा -"नहीं!"
     "क्यों नहीं ?" दोनों बड़े भाइयों के मुँह से एक साथ निकाला।
        "क्योंकि यह श्राद्ध कर्म में नहीं श्रद्धा कर्म में ...............।"
     "श्रद्धा कर्म ?"
"हाँ श्रद्धा-कर्म ।तुम्हारी माँ ने दुःख सहकर, जमीन-जायदाद,जेवर गहने बेचकर तुमलोग को पढ़ाया-लिखाया, अच्छे घर में ब्याह किया   इसलिए तुम सभी ने मरने के बाद दिखावा करने हेतु...........।
 लेकिन जब इतने दिनों से माँ बीमार थी तो इलाज करवाने का भी समय और पैसे नहीं थे.....।माँ के अंतिम दर्शन.......
 लेकिन मेरा यह बेटा सीमित कमाई में भी अपनी माँ का इलाज-पानी ,सेवा -सुश्रुषा बड़ी श्रद्धा और प्रेम से किया।    जिंदगी भर तुम्हारी माँ टूटी खाट पर सोती रही और उसपर से ही गिरने के कारण उसकी कमर की हड्डियां टूट गयीं तब कोई उसे एक खाट-चौकी तक नहीं दिया ।यही एक महीने का वेतन उस दिन दिया होता तो शायद उसका अच्छे-से इलाज....
यही मेवे-फल उस दिए होते तो जीते जी उसकी आत्मा तृप्त होती।अब मरने के बाद इन सामानों को दान का ढकोसला और.............. ?         "यदि किसी को ज्यादा श्रद्धा और प्रेम दिखाना है तो उसके जीवन में करो , मरने के बाद  वह व्यक्ति स्वयं इस आकांक्षाओं से मुक्त हो जाता है।सारे दान-दक्षिणा, भोज-भात लोग समाज के दिखाबे के लिए करते हैं।" इसलिए -"मान करो दान नहीं।श्रद्धा में विश्वास करो श्राद्ध में नहीं।"
                 सुजाता प्रिय 'समृद्धि'

ओ माँझी

ओ माँझी

ओ मांझी ! ओ मांझी!
आजा मेरे प्यारे देश में। 
बार-बार मैं तुझे बुलाऊँ,
 विनती के संदेश में। 
ओ मांझी! ओ मांझी! 

इस देश की है नाव पुरानी। 
पुरवाई बहती बड़ी तुफानी। 
क्या बैठा रहेगा तू जग में? 
बस पत्थर के वेश में। 
ओ मांझी! ओ मांझी! 

तुझ बिन नाव डगमग डोले। 
तुम न आते,न कुछ ही बोले। 
पतवार तेरे हाथ में है तो, 
बैठा क्यों परदेश में? 
ओ मांझी! ओ मांझी ! 

भाई-बंधु आपस में झगड़े। 
कोई दुर्बल है,तो कोई तगड़े। 
क्या बोलोगे नहीं कभी तुम, 
जन-मन के इस क्लेश में। 
ओ मांझी! ओ मांझी! 

 सुजाता प्रिय 'समृद्धि'

Wednesday, February 19, 2025

मैं तेरी हमराज़ हूँ ( गज़ल )

तुम मेरे सरताज हो और मैं तुम्हारी लाज हूंँ।
तुम ही मेरी जिंदगी हो, मैं तेरी हमराज हूंँ।

सज रही महफ़िल यहांँ,गायकी के वास्ते,
तुम मेरी संगीत बन जा,मैं तुम्हारी साज हूंँ।

हो रहा है गान अब, हम भी मिलकर गाएंँगे,
तुम हमारी गीत बन जा, मैं तेरी आवाज़ हूंँ।

मेरे सुर में सुर मिला, साथ सरगम लो बजा,
तुम मेरे आलाप हो और,मैं तेरी अंदाज हूँ।

देखो अब सारे जहांँ में, प्यार का सम्राज्य है,
तुम यहांँ सम्राट बन जा, मैं तुम्हारी ताज हूंँ।

मेरे मन में उठ रही,पूरी कर दो कामना 
तुम मेरे मन भेद रख लो,मैं तुम्हारी राज हूँ।

खुशनुमा लगता जहां,जब तुम्हारा साथ हो,
संग मेरे हर कल रहोगे,संग तुम्हारे आज हूंँ।

        सुजाता प्रिय 'समृद्धि'